नवधाभक्ति

🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌹🌷🌷🌹🌹🌹🌹🌹🌹भक्ति अनन्त प्रकार से की जाती है , जिसकी रुचि , जिस प्रकार से हो जाय ! किंन्तु उन समस्त प्रकारों को नव भागों में विभक्त कर दिया है , जिसे नवधाभक्ति कहते हैं यथा :- 

" श्रवणं कीर्तनं विष्णोरर्चनं पादसेवनम् 
स्मरणं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् " 

इन नव प्रकार की भक्ति की साधनाओं में सभी श्रेष्ठ एवं प्रयुक्त हैं किंन्तु सरलता के दृष्टकोण से शीघ्रातिशीघ्र सिद्ध होने वाली साधना , संकीर्तन ही है | कारण यह है कि इस कराल - कलिकाल में अन्यसाधनाओं द्वारा भगवद्धिषय में मन-बुद्धि का भाव देर में होता है | भागवत कहती है :- 

" कृते यद्ध् यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:
    द्वापरे परिचर्यायां कलौ संकीर्त्य केशवम् " 
                                   ( भा. १२-३-५२)

इसी भाव को लेकर रामायण भी कहती है :- 

कृत युग सब योगी विज्ञानी , 
                  करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी |
त्रेता विविध यज्ञ नर करहीं , 
                     प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहिं |
द्वापर करि रघुपति पद पूजा ,
                      नर भव तरहिं उपाय न दूजा | 
कलियुग केवल हरि गुनगाहा ,
                        पावत नर पावत भव थाहा | 

यद्यपि भगवन्नाम , गुण , लीलादिकों का उच्चस्वर से गान ही कीर्तन है , तथापि संकीर्तन में बहुत सी बातें अवश्यज्ञेय हैं |
प्रथम , दीनता अनिवार्य है | 

 दीनता :- 
   " तृणादपि सुनीचेन तरोरपि सहिष्णुना
अमानिना मानदेन कीर्तनीय: सदा हरि: "

अर्थात् तृण से बढ़ कर दीनभाव , वृक्ष से बढकर सहिष्णुभाव सब  को सम्मान देने का भाव , स्वयं सम्मान न चाहने का भाव ही दीनता का स्वरुप है | क्योंकि इसी दीनता की आधार भित्ति पर ही साधना का महल खड़ा होता है | 
अत: दीनता पर प्रमुखतया ध्यान देने की आवश्यकता है | क्योंकि जहां दीनता छिनी , तत्क्षण ही अहंकार आया , एवं जहां अहंकार आया , भक्ति की महल को गिरा कर ह्रदय में भगवान के स्थान पर अहंकार विराजमान हो गया | 
अतएव दीनता छिन जाने का अभिप्राय है भगवान् से विमुख हो जाना | 
अत: इस बात पर ध्यान दो , कि दीनता के आधार पर ही भक्ति का महल खड़ा होता हैं |
                :- श्री महाराज जी🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌷

Comments

Popular posts from this blog

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

नहिं कोउ अस जन्मा जग माहीं | प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं ||

प्रपतिमूला भक्ति यानि अनन्य भक्ति में शरणागति के ये छ: अंग अति महत्वपूर्ण है :- १. अनुकूलस्य संकल्प: २.प्रतिकुलस्य वर्जनम् ३.रक्षिष्यतीति विश्वास: ४.गोप्तृत्व वरणम् ५.आत्मनिक्षेप एवं ६. कार्पव्यम् ।