भक्ति रस से ओत प्रोत ।।एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन ।धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ।।
भक्ति रस से ओत प्रोत ।।
एहि बिधि कृपा रूप गुन धाम रामु आसीन ।
धन्य ते नर एहिं ध्यान जे रहत सदा लयलीन ।।
यहां तुलसीदास जी लंका का प्रसंग बता रहें हैं । वे कहते हैं - पता नहीं क्यों मुझे यह प्रसंग और भगवान का यह रूप बड़ा सुंदर लगता है, जब लंका में प्रभु राम पहुँचे और एक पर्वत के शिखर की ऊँचाई पर बैठ गए । सुबेल है उस पर्वत का नाम । तुलसीदास जी कहते हैं कि उस कृपा के रूप का जो भी नारी-नर स्मरण , ध्यान करते हैं वे बड़े धन्य हैं ।
इस पर प्रभु राम ने तुलसीदास जी से पुछा - क्यों, तुम्हे मेरा अयोध्या का रूप पसंद नहीं आया ? मिथिला का मधुर रूप पसंद नहीं आया ? अरे चलो , चित्रकूट का बनवासी रूप बड़ा बिचित्र सुन्दर है , वही पसंद आ जाता ? लेकिन तुझे लंका के मेरे इस रूप में ऐसा क्या आकर्षण प्राप्त हुआ कि तूने इस चौपाई को लंका कांड में लिखा है । ऐसी क्या बात है यहां ?
इस पर तुलसीदास जी कहते हैं - देखिय प्रभु ! यदि मैं अयोध्या का चिन्तन करूँगा तो मुझे अपने ह्रदय को अयोध्या बनाना पडेगा । यदि मिथिला की आपकी मधुर लीलाओं का चिन्तन करूँगा तो मेरा ह्रदय मधुर होना चाहिए ।
यदि चित्रकूट के उस संन्यासी-योगी राम का चिंतन करता हूँ तो बड़ा कठिन है इस ह्रदय को चित्रकूट जैसा वैरागी बनाना !
लेकिन जब मैने सुना कि आप लंका में भी पहुँच जाते हैं और वहां जाकर बैठ जाते हैं तो मुझे बड़ा साहस हुआ कि लंका रूपी ह्रदय को बनाने की जरूरत ही नहीं है , मेरा ह्रदय भी तो लंका है ही न । इसको तो बनाने की जरूरत कहां प्रभु ! अत: आप जिस तरह लंका में सुबेलु पर्बत पर जाकर बैठ गए उसी प्रकार मेरे भी इस लंका रूपी ह्रदय में आकर बैठ जाइए ।
तो ऐसी
ऐसा था तुलसी दास जी का भाव ,
फिर तुलसीदास जी कहते हैं कि आश्चर्य की बात यह है कि दशरथ जी ने अयोध्या में उनको आग्रह के साथ बुलाया तो प्रभु राम आए ।
मिथिला में जनक जी ने पुकारा , तो उनके आग्रह पर वहाँ पधारे । बाल्मिकी जी ने चित्रकूट पधारने के लिए आग्रह किया इसलिए श्रीराम चित्रकूट पहुँच गए । बाल्मिकि जी कर्मयोगी हैं । जनक जी ज्ञानयोगी हैं । दशरथ जी भक्ति योगी हैं । इन तीन-तीन योगियों की पुकार पर , उनके आग्रह पर प्रभु उनके पास पहँचे । लेकिन लंका में !
तुलसीदास जी कहते हैं कि मैं देखता हुँ कि लंका में तो न कोई आपको निमंत्रण दिया गया है न कोई बुलाया और न तो लंका का राजा चाहता है कि आप वहां आएं , लेकिन आप वहां जबरदस्ती घुसकर बैठ गए , जबरदस्ती !
मैं भी यही चाहता हुँ प्रभु ! मेरे पास इतनी ताकत नहीं है कि मैं आपको पुकार सकुं । कर्मयोगी , भक्तियोगी, ज्ञानयोगी होने का प्रश्न ही नही है कि आप मेरी पुकार सुनकर आ जाएं , मै ऐसा कुछ भी नहीं ।
लेकिन यह आप कर सकते हैं कि मेरे इस लंका रूपी ह्रदय में बिना किसी निमंत्रण , बिना किसी पुकार के जबरदस्ती आकर घुसकर बैठ जाईए । इसमें ही मेरा कल्याण है । मेरे पास और कोई उपाय नहीं है प्रभु । लेकिन आपके पास तो ताकत है जबरदस्ती घुसकर बैठने की !
श्री महाराज जी भी यही कहते हैं - ' हे किशोरी जू ! अपनी ओर देख और घुसकर बैठ जाइए ह्रदय में । तू सोचे कि मैं अपना अन्त:करण अपने प्रयास से शुद्ध करके तुझे बिठा लुंगा, यह नहीं हो सकता ।,
गौस्वामी तुलसीदास जी एवं लंका प्रसंग :-
अब जरा सोचिए, दशरथ जी ने कैसा आसन दिया प्रभु को ! सिंहासन । हाँ, आप यदि पुकारेंगे तो आसन भी तो देना पड़ेगा न ! कहां बैठाएँगें अपने सरकार को ? जब राम राज्य हुआ तो वे सिंहासन पर बैठे, सिंहासन पर बैठाया दशरथ जी ने ।
जनक जी के पास गए तो उन्होने वरासन पर बैठाया । चित्रकूट में जब प्रभु पहुँचे तो शबरी ने सुन्दर वेदी बनाकर उन्हे कुशासन पर बिठाया । ये सब आसन दे रहें हैं ।
सिहांसन धर्म का प्रतीक है । वरासन मान का प्रतीक है । और कुशासन भक्ति का प्रतीक है । साक्षात भक्ति दे रही है कुशासन ! लेकिन लंका में कौन आसन दें ?
तो प्रभु लक्ष्मण से कहते हैं- ' अरे लक्ष्मण ! इधर आ ! तेरे कान में एक बात कहूँ । वहां तो हम बिन बुलाए मेहमान होंगे । तो आसन तो वहां मिलेगा नहीं , इसलिए अपना आसन हमें साथ लेकर चलना होगा । इसीलिए प्रभु राम लक्ष्मण से कहकर अपना आसन साथ लेकर लंका आए ।
' ता पर रूचिर मृदुल मृगछाला । तेहीं आसन आसीन कृपाला ।।'
अब लक्ष्मण जी लंका पहुँचे , वहां पर देखे कि लंका तीन पर्वत पर बसा हुआ है , तमोगुण पर्वत , रजोगुण पर्वत और सतोगुण पर्वत , अब सतोगुण पर्वत खाली छोड़ा हुआ है , इसलिए लंका में केवल तमोगुण एवं रजोगुण सक्रिय है , सतोगुण निष्क्रिय है । यह सुबेल पर्वत सत्वगुण का है । लंका में इस पर्वत को बिना किसी काम का मान कर खाली छोड़ा गया है वेकार मानकर । लक्ष्मण जी इसी सुवेल पर्वत पर गए और पर्वत के शिखर पर समतल ढुंढ रहे है । अब आप हीं बतलाइय कि पर्वत के शिखर पर समतल भूमि कहां मिलेगी , पर खोज लिया लक्ष्मण जी ने थोड़ी सी जगह । वहां कोमल पत्ते बिछाए फूल की पंखुरिया बिछाए और उस पर मृगछाला बिछा दिया । फिर प्रभु को उस आसन पर आसीन किया ।
अब यहां पर तुलसीदास जी कहते हैं कि देखिए पर्वत के शिखर पर समतल भूमि थोड़ी सी हीं सही लेकिन लक्ष्मण जी ने खोज ही ली ।
ऐसे हीं हमारा ह्रदय है , भले हीं हमारे ह्रदय पर रावण रुपी दुर्गुणों का शासन हो, पर फिर भी किसी कोने में थोड़ा -सा खाली स्थान तो हर जीव के भीतर रहता है । बस उसी खाली स्थान पर आकर बैठ जाइए और हमको अपना बना लिजिए न प्रभु ।
अब दुसरी बात, जैसा कि पहले चर्चा की गई कि सिंहासन धर्म का प्रतीक है , वरासन ज्ञान व मान का प्रतीक है । कुशासन भक्ति का प्रतीक है ।
अब यह मृगचर्म किसका प्रतीक है ?
यह मृगचर्म जो है, यह मारीच का है । तुलसीदास जी कहते हैं कि मारीच जो है वह व्यक्ति के चंचल मन का घोर तमोरूप है । जब प्रभु को जीव कहता है कि मेरा कोई प्रयास या मेरी कोई पुकार आपको बुला नहीं सकती , तो फिर उपाय कहाँ है बिचारे जीव के पास ।
दशरथ जी ने आग्रह से पुकार लिया, जनक जी ने भी बुला लिया, बाल्मिकि जी ने भी बुला लिया । अब हममें तो ऐसी योगयता है नहीं, हम तो असमर्थ हैं। यह जो चंचल मन है, यह मारीच का रूप है । इस पर तो तमोगुण का शासन है । अपने ह्रदय पर ध्यान दीजिए । एक तो चंचल मन और उस पर वहाँ शासन रावण का । कितना मोही मन है यह ! ऐसा मन क्या पुकारेगा ? उपाय क्या है ? समर्थ तो पुकार भी ले, लेकिन यदि हम अपनी ओर देखतें हैं तो हम तो स्वयं को बड़ा अयोग्य-असमर्थ पाते हैं । हमारे लिए क्या उपाय है ? हमारे लिए तुलसीदास जी कहतें हैं - एक ही उपाय है शरणागति । कम्पलिट शरेण्डर । हम असमर्थ हैं । हमारा ह्रदय लंका है प्रभु ! हम अपने प्रयास से तो आपको कोई आसन देकर अपने ह्रदय में बैठा नही सकते , इसलिए आपको हीं जबरदस्ती स्वयं परिश्रम करके एवं हमारे मन के मारीच को, चंचलता को मारकर आसीन होना पड़ेगा ।
रावण ने ही भेजा था मारीच को । उस मारीच के चर्म से लक्ष्मण जी द्वारा बनाए गए आसन पर आप बैठें । सारा परिश्रम आपने किया । अपना आसन भी खुद लेकर आए , खुद बैठे और कल्याण किया रावण का । उसके साथ मारीच का भी कल्याण हो गया ।
ऐसे ही प्रभु हमारा ह्रदय भी लंका है , मन मारीच है, बुद्धि रावण है । हम इनसे शासित हो रहे हैं , हमारे पास बल नही है क्योंकि हमारा मन उत्तंग तमोगुण से युक्त है ।
हाँ कभी कभी अत्यधिक रजोगुण प्रकट होतें हैं । किंतु बड़ी क्षुद्र मात्रा में सात्विक गुण आते हैं , वह भी अति निम्न मात्रा में । इसलिए प्रभु हमारी जो दशा है , इसमें जबरदस्ती घुसकर मेरे मन को भेदकर आपको आकर बैठना होगा । मेरे इस बिगड़े मन को आपको ही शुद्ध करके आना होगा । मेरी भ्रष्ट बुद्धि को नष्ट करके मेरे मन को शुद्ध करके फिर शुद्ध मन को आसन बनाकर आपको बैठना होगा । यह आप हीं कर सकतें हैं मैं तो अति निरबल हुँ । और निर्बल के बल राम ।:- पुज्यनिया माँ रासेस्वरी देवी ।
--------------- समाप्त ------
:- मां ( भक्ति पीयुष ) क्रमश:-
Radhey Radhey
ReplyDelete