भक्ति बड़ा सरल है, कोई नियम निषेध आदि नहीं।
ज्ञानमार्ग तो बड़ा कठिन है
‘ग्यान पंथ कृपान कै धारा’ (मानस, उत्तर॰ 111। 1),
किन्तु भक्ति बड़ा सरल है, कोई नियम निषेध आदि नहीं-
‘भगति कि साधन कहउँ बखानी सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी ॥’। (मानस, अरण्य॰ 16। 3)
भगवान् श्रीकृष्ण ने जीवों के लिये अपनी प्राप्ति का मार्ग बड़ा सरल बतलाऐं हैं ‒
अनन्यचेता सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन: ॥ (गीता 8। 14)
‘हे पार्थ ! अनन्य भाव वाला जो जीव नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करता है उस जीव के लिये मैं सुलभ हूँ। ’ ज्ञानमार्गपर चलनेवाला तो अपने साधन के बल को मानता है, पर भक्त की यह विलक्षणता होती है कि वह अपने साधन का बल मानता ही नहीं। वो तो शरणागति का भाव रख कर भक्ति करता है।
मैं इतना जप करता हूँ, इतना तप करता हूँ, इतना पुजा पाठ करता हुं, इतना तिरथ करता हुं, इतना ध्यान करता हूँ, इतना सत्संग करता हूँ, इतना दान करता हुं ‒इस तरह भीतर में अभिमान रहने से भक्ति प्राप्त नहीं होती।
जिनका सीधा-सरल स्वभाव है, जो भगवान् के कृपावल पर निर्भर रहते हैं और हरेक परिस्थिति में सेवा भाव में विभोर रहते हैं, उन्हीं को भक्ति प्राप्त होती है‒
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा।
जोग न मख जप तप उपवासा ॥
सरल सुभाव न मन कुटिलाई।
जथा लाभ संतोष सदाई ॥ (मानस, उत्तर॰ 46। 1)
जबतक अपने साधन वल का अभिमान रहता है, तबतक शुद्धा-भक्ति प्राप्त नहीं होती। भक्ति प्राप्त होनेपर भक्तके मन में यह बात आती ही नहीं कि मैं भजन करता हूँ। ए मैं का भाव नहीं रहता। हनुमान्जी ने कहा हैं‒
‘जानउँ नहिं कछु भजन उपाई’(मानस, किष्किन्धा॰ 3। 2)।
हनुमान्जी भक्ति के बहुत बड़े आचार्य होते हुए भी कहते हैं कि मैं भजनका उपाय नहीं जानता कि भजन क्या होता है ? कैसे होता है ? शबरी को भी पता ही नहीं था कि भक्ति नौ प्रकारकी होती है और वह मेरे में पूर्णरूप से विद्यमान है !
वो तो भगवान राम से रोते हुए कहती है‒
अधम ते अधम अधम अति नारी।
तिन्ह महँ मैं मतिमंद अघारी ॥ (मानस, अरण्य॰ 35। 2)
किंतु भगवान् शवरी को कहते हैं‒
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं ॥
नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई।
नारि पुरुष सचराचर कोई ॥
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे।
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें ॥ (मानस, अरण्य॰ 35। 4,36। 34)
:- पूज्यनियां मां रासेश्वरी देवी जी।
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