'यथा ब्रजगोपिकानाम् ' प्रेम किसे कहते है ? प्रेम इस संसार की वस्तु नहीं है , प्रेम तो दिव्य तत्त्व है | जो भावना किसी के गुण को देखकर ह्रदय में अपना घर बनाती है , वह तो कामनावश की जाने वाली आसक्ति है | वह प्रेम कहाँ ?

'यथा ब्रजगोपिकानाम् ' प्रेम किसे कहते है ? प्रेम इस संसार की वस्तु नहीं है , प्रेम तो दिव्य तत्त्व है | जो भावना किसी के गुण को देखकर ह्रदय में अपना घर बनाती है , वह तो कामनावश की जाने वाली आसक्ति है | वह प्रेम कहाँ ? वेद का उदघोष है :- " न वा अरे पत्यु: कामाय पति: प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पति: प्रियो भवति | न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ...." अर्थात् संसार में कोई किसी दूसरे के सुख के लिय प्यार नही करता , सब अपने सुख के लिए एक - दूसरे से प्यार का स्वांग रचते है | इस वेदोक्ति का क्या प्रमाण है ? प्रमाण है हमारा निज अनुभव | हम जानते हैं कि जब किसी का स्वार्थ बहुत होगा , तो वह प्यार भी बहुत प्रकट करता है | पर जब स्वार्थ कम तो प्यार भी कम | स्वार्थ की हानि , तो प्रेमी कहलाने वाले स्वजन भी प्राण ले लेते हैं | पर प्रेम की परिभाषा कुछ और हीं है | प्रेम का कारण न हो , तो भी प्रेम बढता रहे | प्रेमास्पद के किसी भी व्यवहार से प्रेमी को कोई लेना-देना न हो , तो उसे प्रेम कहते हैं - 'यथा ब्रजगोपिकानाम् ' | श्रीकृष...