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Showing posts from December, 2020

'यथा ब्रजगोपिकानाम् ' प्रेम किसे कहते है ? प्रेम इस संसार की वस्तु नहीं है , प्रेम तो दिव्य तत्त्व है | जो भावना किसी के गुण को देखकर ह्रदय में अपना घर बनाती है , वह तो कामनावश की जाने वाली आसक्ति है | वह प्रेम कहाँ ?

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'यथा ब्रजगोपिकानाम् '  प्रेम किसे कहते है ? प्रेम इस संसार की वस्तु नहीं है , प्रेम तो दिव्य तत्त्व है | जो भावना किसी के गुण को देखकर ह्रदय में अपना घर बनाती है , वह तो कामनावश की जाने वाली आसक्ति है | वह प्रेम कहाँ ?  वेद का उदघोष है :-  " न वा अरे पत्यु: कामाय पति: प्रियो भवत्यात्मनस्तु कामाय पति: प्रियो भवति | न वा अरे जायायै कामाय जाया प्रिया भवत्यात्मनस्तु कामाय जाया प्रिया भवति ...." अर्थात् संसार में कोई किसी दूसरे के सुख के लिय प्यार नही करता , सब अपने सुख के लिए एक - दूसरे से प्यार का स्वांग रचते है |  इस वेदोक्ति का क्या प्रमाण है ?  प्रमाण है हमारा निज अनुभव | हम जानते हैं कि जब किसी का स्वार्थ बहुत होगा , तो वह प्यार भी बहुत प्रकट करता है | पर जब स्वार्थ कम तो प्यार भी कम | स्वार्थ की हानि , तो प्रेमी कहलाने वाले स्वजन भी प्राण ले लेते हैं |  पर प्रेम की परिभाषा कुछ और हीं है | प्रेम का कारण न हो , तो भी प्रेम बढता रहे | प्रेमास्पद के किसी भी व्यवहार से प्रेमी को कोई लेना-देना न हो , तो उसे प्रेम कहते हैं - 'यथा ब्रजगोपिकानाम् ' |  श्रीकृष...

मानव देह का महत्व :- संसार का प्रत्येक जीव कर्मशील दिखाई देता है | पशु - पक्षी , कीट- पतंग सभी तो कर्म करते हैं |

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मानव देह का महत्व :- संसार का प्रत्येक जीव कर्मशील दिखाई देता है | पशु - पक्षी , कीट- पतंग सभी तो कर्म करते हैं | यहाँ तक कि स्वर्ग के देवता भी कर्म करते हैं | किंतु इनमें से किसी का भी कर्म स्वतंत्र नहीं है | या यूँ कह लीजिए की उनका कर्म परतंत्र है | वो पुरुषार्थ द्वारा ऐसा कर्म नही कर सकते , जिससे वे अपने अनंत जन्मों के संचित कर्म को भस्म कर दें और भविष्य के अनंत काल को बना लें |  चूँकि यह कमाई नाम की चीज़ , पुरुषार्थ नाम का तत्व उनके साथ नहीं रह सकता , इसलिए ये सब भोग योनि के अंतर्गत आते हैं |  आइए , अब हम मानव योनि पर विचार करें | मानव योनि ही एक ऐसी योनि है , जिसमें आकर हम वास्तव में कर्म कर सकते है |  मानव देह बड़ा कमाल का है | एकमात्र मानव देहधारी जीव ही यह शक्ति रखता है कि वह जिस जीव से चाहे अपने अनुरुप कर्म करवा ले , उनको गुलाम बना ले | उनके द्वारा अपनी सेवा ले |  पशु-पक्षी , कीट-पतंग , अथवा देवता सभी आनंद चाहते हैं , लेकिन चौरासी लाख योनियों मे यह शक्ति सिर्फ मानव को ही प्राप्त है कि वह अपने सुख के लिए अन्य चेतन जीवों को गुलाम बना ले , अपना दास बना ले | इन ...

नवधाभक्ति

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🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌷🌹🌷🌷🌹🌹🌹🌹🌹🌹भक्ति अनन्त प्रकार से की जाती है , जिसकी रुचि , जिस प्रकार से हो जाय ! किंन्तु उन समस्त प्रकारों को नव भागों में विभक्त कर दिया है , जिसे नवधाभक्ति कहते हैं यथा :-  " श्रवणं कीर्तनं विष्णोरर्चनं पादसेवनम्  स्मरणं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् "  इन नव प्रकार की भक्ति की साधनाओं में सभी श्रेष्ठ एवं प्रयुक्त हैं किंन्तु सरलता के दृष्टकोण से शीघ्रातिशीघ्र सिद्ध होने वाली साधना , संकीर्तन ही है | कारण यह है कि इस कराल - कलिकाल में अन्यसाधनाओं द्वारा भगवद्धिषय में मन-बुद्धि का भाव देर में होता है | भागवत कहती है :-  " कृते यद्ध् यायतो विष्णुं त्रेतायां यजतो मखै:     द्वापरे परिचर्यायां कलौ संकीर्त्य केशवम् "                                     ( भा. १२-३-५२) इसी भाव को लेकर रामायण भी कहती है :-  कृत युग सब योगी विज्ञानी ,                    करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रान...

'अबुद्ध' प्रारब्ध के अधीन, 'बुद्ध' नहीं ।

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बहुत प्रेरक प्रसंग :-  'अबुद्ध' प्रारब्ध के अधीन, 'बुद्ध' नहीं । एक बार एक भिक्षुक भेषधारी निरंजना नदी के पास से गुजर रहे थे । रेत गीली थी और उस पर उनके पद चिन्ह बनते जा रहे थे । संयोगवश उसी मार्ग से एक ज्योतिष भी ज्योतिष विद्या ग्रहण कर काशी से लौट रहा था । अभी-अभी ज्योतिष ज्ञान में निष्णात हुआ वह , अति उत्साहित अपने विचारों में खोया बढ़ा चला आ रहा था । रेत पर पड़े असाधारण पद चिन्हों ने उसका ध्यान आकर्षित किया । उसने गौर से नज़र डाली । उसका ज्योतिष ज्ञान कह रहा था कि यह चक्रवर्ती सम्राट के पद चिन्ह हैं । ज्योतिष गहण चिन्तन में खो गया । वह सोचने लगा - 'किन्तु ....किन्तु ! यदि यह चक्रवर्ती सम्राट के चरण चिन्ह हैं, तो एक चक्रवर्ती सम्राट भला जन साधारण की भाँति इस भरी दुपहरी में पैदल क्यों चलेगा ? और वह भी इस भाँति नंगे पैर ! बड़ी उलझन में पड़ गया वह ! एक पल के लिए सारा ज्योतिष शास्त्र पहले कदम में ही थोथा मालूम पड़ा । अभी अभी तो लौटा था निष्णात होकर ज्योतिष विज्ञान में वह ! जो पोथी उसे अबतक प्राणों से प्यारी थी , वही अब उसे थोथी जान पड़ने लगी ।  निराश - हताश उसने सो...

आस्तिक दर्शन ।।

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हमारे यहां छह शास्त्र हैं - मीमांसा, न्याय, सांख्य, वैशेषिक, पातंजलि, वेदांत । ये आस्तिक दर्शन कहलाते हैं। माने ? वेद को अथॉरिटी मानते हैं । लेकिन आप सुनेंगे तो हैरान हो जाएंगे । पहला - मीमांसा दर्शन । वेद में दो काण्ड है - पूर्व कांड, उत्तरकाण्ड । तो पूर्व कांड को पूर्व मीमांसा कहते हैं , और उत्तर काण्ड को जिसमे उपनिषद हैं उसको उत्तर मीमांसा कहते हैं । वेदांत भी कहते हैं । शारीरिक भाष्य भी कहते हैं । तो मीमांसा दर्शन क्या कहता है ? वह भगवान्-वगवान् को नहीं मानता । वह कहता है - यज्ञादिक कर्म करो और उसी के फल के अनुसार वह कर्म ही फल बन जाएगा , अगले जन्म में और फिर उसका फल मिलेगा यज्ञ का - स्वर्ग । बस स्वर्ग की प्राप्ति ही अंतिम लक्ष्य है । वेद के अनुसार यज्ञ करो,  उसके अनुसार स्वर्ग जाओ,  स्वर्ग में बड़ा आनंद है , बस छुट्टी । और हमको क्या चाहिए ? आत्यन्तिक दु:ख निवृत्ति यानी सदा को दु:ख चला जाए ।  नहीं, यह लक्ष्य नहीं है हमारा, अनन्त काल को अनंत मात्रा का सुख मिले यह लक्ष्य है।  दु:ख निवृत्ति तो अपने आप हो जाएगी । दु:ख निवृत्ति होने से आनंद मिलेगा यह कंपलसरी नहीं,...

Ask it shall be given, seek you shall find, knock it shall be open for you. Humble yourself unto the almighty hands of God so that He may exult in due time” - Bible

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हमारे गुरुदेव की एक उपाधि है निखिल दर्शन समन्वयाचार्य | उन्होंने सभी धर्मों का समन्वय किया है | अपनी प्रकट लीला में उन्होंने वर्तमान समय में प्रचलित सभी पर्वों जैसे मदर्स डे , फादर्स डे, करवा चौथ , क्रिसमस आदि को मनाया है | उन्होंने यह सिद्ध किया है कि सभी धर्मों का एक ही प्रयोजन है- भगवान के प्रति सम्पूर्ण शरणागति और उनके श्री चरणों में प्रेम !   सब कर मत खगनायक एहा | करिय राम पद पंकज नेहा || जहँ लगि साधन वेड बखानी | सब कर फल हरि भगति भवानी ||                                                               रामचरितमानस कोई भी पंथ हो, धर्म हो, संत हो सब एक ही बात कहते हैं- “Ask it shall be given, seek you shall find, knock it shall be open for you. Humble yourself unto the almighty hands of God so that He may exult in due time” - Bi...

एक व्यक्ति से जब नाई ने कहा की वो भगवान के अस्तित्व को नहीं मानता तो फिर क्या हुआ -पढीए।

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एक बार एक व्यक्ति नाई की दुकान पर अपने बाल कटवाने गया। नाई और उस व्यक्ति के बीच में ऐसे ही बातें शुरू हो गई और वे लोग बातें करते-करते भगवान के विषय पर बातें करने लगे। तभी नाई ने कहा: मैं भगवान के अस्तित्व को नहीं मानता और इसीलिए तुम मुझे नास्तिक भी कह सकते हो। तुम ऐसा क्यों कह रहे हो व्यक्ति ने पूछा। नाई ने कहा: बाहर जब तुम सड़क पर जाओगे तो तुम समझ जाओगे कि भगवान का अस्तित्व नहीं है। अगर भगवान होते, तो क्या इतने सारे लोग भूखे मरते? क्या इतने सारे लोग बीमार होते? क्या दुनिया में इतनी हिंसा होती? क्या कष्ट या पीड़ा होती? मैं ऐसे निर्दयी ईश्वर की कल्पना नहीं कर सकता जो इन सब की अनुमति दे। व्यक्ति ने थोड़ा सोचा लेकिन वह वाद-विवाद नहीं करना चाहता था इसलिए चुप रहा और नाई की बातें सुनता रहा। नाई ने अपना काम खत्म किया और वह व्यक्ति नाई को पैसे देकर दुकान से बाहर आ गया। वह जैसे ही नाई की दुकान से निकला, उसने सड़क पर एक लम्बे-घने बालों वाले एक व्यक्ति को देखा जिसकी दाढ़ी भी बढ़ी हुई थी और ऐसा लगता था शायद उसने कई महीनों तक अपने बाल नहीं कटवाए थे। वह व्यक्ति वापस मुड़कर नाई की दुकान में दुबारा घुस...

भगवान् भक्त के अधिन हो जाते है| वो भक्त के पीछे पीछे चलते है | भगवान् तो भाव विह्वल होकर चाकर वन कर अपने भक्त की सेवा करने लग जाते हैं :- ऐसा ही हुआ था भक्त बिद्यापति के साथ :- अवश्य पढ़े साल १४२१ की वास्तविक घटना है |

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यह कहानी पुरी अवश्य पढ़े की किस प्रकार  भगवान् भक्त के अधिन हो जाते है| वो भक्त  के पीछे पीछे चलते है | भगवान् तो भाव विह्वल होकर चाकर वन कर अपने भक्त की सेवा करने लग जाते हैं :-  ऐसा ही हुआ था भक्त बिद्यापति के साथ :- अवश्य पढ़े  साल १४२१ की वास्तविक घटना है |  मिथिला के लोकमानस में यह बात समस्त विख्यात है कि विद्यापति जैसा शिवभक्त न इतिहास में हुआ न ही भविष्य में हो सकता है। लोकमान्यता के अनुसार महाकवि की रचनाधर्मिता एवं अपने प्रति भक्ति का असीम स्नेह को देखकर भगवान शंकर द्रवित हो गए। उन्हें ऐसा लगा कि अपने इस आश्चर्यजनक भक्त एवं कवि विद्यापति के बिना वे रह ही नहीं सकते। फिर क्या था। एक दिन भगवान आसुतोष शिव ने अपना रुप बदल लिया और गाँव के एक गंवार एवं अनपढ़ रुप धारण कर महाकवि के समक्ष उपस्थित हो गए। उस अनपढ़ ग्रामीण को देखकर महाकवि ने पूछा: "तुम्हारा नाम क्या है? तुम मेरे पास क्यों आए हो।" इस पर उसने जवाब दिया, "मेरा नाम उगना है। मैं सूदूर गाँव का रहने वाला एक गरीब और बेरोजगार तथा अशिक्षित युवक हूँ। काम की तलाश में मैं आपके पास आया हूँ।" इस पर महाकवि ने जवाब द...

लोक व्यवहार की कला

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बहुत सारे नये दोस्तों ने जो महाराज जी के वेद दर्शन को अब तक नही जाना है या निकट के काल में जुड़े हैं , ने बहुत यह जानने की इच्छा प्रकट की है कि संसार में हमें साधना पथ पर चलते हुए औंरों से किस तरह व्यवहार करना चाहिये ? या हमारा लोक व्यवहार कैसा होना चाहिये ? मैं तो एक दासानुदास हूँ मेरे पास अपना कुछ भी ज्ञान नही हैं | फिर भी महाराज जी ने स्पष्ट शब्दो में इस पर कितनी बार प्रकाश डाला है | उन्होने हमें सिखाया है कि संसार में दो प्रकार के नही तीन प्रकार के जीव हैं अध्यात्म की दृष्टि से | १. पहला वे जो भगवान को मानते है ( मानते हैं माने सच में विस्वास करते हैं ठीक उसी तरह जीस तरह अपने आपके अस्तित्व को मानते हैं ) ए लोग हर पल भगवान के सत्ता को मानते है , श्रद्धा करते हैं भगवद् प्रेमी पिपासु हैं , भगवदोउन्मुखी जीव हैं , हरि गुरु के सिद्धान्त को मानते हैं | प्रेम करते हैं हरि से गुरु से , हरि  गुरु के चरणानुरागी हैं |  २. दुसरे वे जो केवल दिखावे के लिए राम , राम , श्याम , श्याम करते हैं | इनको वास्तविक रुप से भगवान पर विस्वास उस्वास नही हैं | कोई तो मात्र दिखावे के लिय बड़े बड़े यज्ञ ...

प्रश्नः (साधक)- महाराज जी! ये काम, क्रोध, वाले दोष दूर क्यों नहीं हो रहे हैं, जबकि हम रोजाना प्रवचन सुनते हैं, कीर्तन करते हैं, इनमें न्यूनता क्यों नहीं आ पाती है, जैसे अभी आपने कहा- जरा सा किसी का धक्का लग गया, तो तुरन्त, क्रोध हो जाता है, यह बात बिल्कुल सत्य है। तो महाराज जी! तेजी से अंतःकरण शुद्ध हो, वो स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है, कैसे ठीक हो ?

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प्रश्नः (साधक)- महाराज जी! ये काम, क्रोध, वाले दोष दूर क्यों नहीं हो रहे हैं, जबकि हम रोजाना प्रवचन सुनते हैं, कीर्तन करते हैं, इनमें न्यूनता क्यों नहीं आ पाती है, जैसे अभी आपने कहा- जरा सा किसी का धक्का लग गया, तो तुरन्त, क्रोध हो जाता है, यह बात बिल्कुल सत्य है। तो महाराज जी! तेजी से अंतःकरण शुद्ध हो, वो स्थिति क्यों नहीं बन पा रही है, कैसे ठीक हो ? उत्तरः जगद्गुरुत्तम श्री कृपालु महाप्रभु जी- मधुसूदन सरस्वती ने वृन्दावन में गोवर्धन की परिक्रमा किया और भगवान् नहीं मिले। फिर किया, फिर किया, फिर किया और बहुत दिन करते रहे परिक्रमा, तब भगवान् के दर्शन हुए, तो मधुसूदन ने पीठ कर लिया भगवान् की तरफ वो रूठ गए, कहने लगे तुम इतनी देर में क्यों आए? तो भगवान् ने दिखाया, उनके पापों का पहाड़ कि तुम्हारे इतने पाप थे कि ये सब जल जायँ, भस्म हो जायँ, तब तो मैं आऊँ। तो अनन्त जन्मों के पाप हमारे हैं, इतना गंदा अंत:करण है कि अगर कपड़ा थोड़ा मैला है तो एक बार साबुन लगाओ साफ हो गया और अगर धोया ही नहीं है कभी। २४ घण्टे ये भी फीलिंग नहीं है, अभी कि भगवान् हमारे अंत:करण में बैठा है, छोटी सी बात। भगवान् हमारे ...

माया से छुटकारा मिल जाय ये उद्देश्य आप लोगों का रहा हैं | और न रहा हो तो ये होना चाहिये |

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माया से छुटकारा मिल जाय ये उद्देश्य आप लोगों का रहा हैं | और न रहा हो तो ये होना चाहिये | मनुष्य देह पाये , भारत में जन्म हो , और गुरु मिल जाय , और वो गुरु समझ में आ जाय , सब बात बन जाय और फिर भी हम अपना कल्याण न करें , तो इससे गुरु को दु:ख होता है, ये सेवा नही है सेवा का मतलब स्वामी को सुख देना है | किसी भी वाप को उसी संतान से सुख मिलेगा , जो संतान अच्छे आचरण वाली हो , जिसका स्वभाव सरल हो , दीन हो , नम्र हो , मधुर हो , जिसमें दैवी गुण हों , बाप को तभी सुख मिलेगा और संसारी बाप को भले ही न मिले लेकिन गुरु को तभी सुख मिल सकता है जब शिष्य भगवान की ओर चले , अच्छे गुण उसमे पैदा हों , लेकिन तुम लोगों के व्यवहार से हमको सुख नही मिलता , दु:ख मिलता है, ये बात तुम माइण्ड नही करते | नहीं सोचते अगर ये बात सोचो तो फिर हमको सुख देने का कार्य करो |  हमको सुख देने से दो लाभ हैं , एक तो हमको दु:ख नही मिलेगा , दुसरे तुम्हारा कल्याण होगा | अन्यथा तुम भगवान के आगे क्या जबाब दोगे |  सब कृपा भगवान ने की , तुमको गुरु मिल गय , तुम भगवान के धाम में आ गए , और फिर भी लापरवाही , आपस में लड़ते हो , कटु वा...

नामापराध - किसी महापुरुष या साधक का अपमान करना भी घोर कुसंग है |

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नामापराध - किसी महापुरुष या साधक का अपमान करना भी घोर कुसंग है | साधकगण बहुधा अपने आपको तथा अपने महापुरुष को ही सत्य समझते हैं , शेष साधकों एवं महापुरुषों में दुर्भावना -पूर्ण निर्णय देते हैं | यह महान भूल है | इससे नामापराध हो जायगा , जिसके परिणामस्वरुप अपना महापुरुष तथा अपना इष्टदेव भी प्रसन्न न हो सकेगा ; क्योंकि समस्त महापुरुष तथा भगवान् परस्पर एक ही हैं | यदि किसी अन्य महापुरुष से तुम्हारी साधना के अनुकूल लाभ प्राप्त होता है तो उसे अवस्य ग्रहण करना चाहिये | किन्तु , इसमें बड़ी सावधानी की आवश्यक्ता है | अन्यथा कहीं यदि महापुरुष पर दुर्भावना हो गई तो ' एक पैसा कमाया एक लाख गँवाया' वाली कहावत सिद्ध हो जायगी |  भगवान् के समस्त नाम , समस्त गुण , समस्त लीला , समस्त धाम एवं उनके समस्त भक्त परस्पर एक हैं | एक के प्रति भी दुर्भावना करना सभी के प्रति दुर्भावना करना है | इनमें कोई छोटा बड़ा नहीं है | सबमें सबका निवास है और नित्य निवास है काल्पनिक नहीं | आपके नाम में आपका निवास नहीं है किन्तु भगवान् के नाम में भगवान् का निवास है और जहाँ उनका निवास है वहाँ उनके जन का निवास है | जहाँ उन...

हम स्थितप्रज्ञ कैसे रहें ??

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बाहर कितना भी उथल पुथल हो , हम अँदर से आत्म स्वरुप में स्थित हैं , आत्मा हैं शरीर नहीं  यह हमेशा याद रखें , सदा शांत रहें | बाहरी बातावरण हमको प्रभावित नहीं कर पाय कभी , कभी विचलित न हों , कभी निराश न हों , हर पल उनका हीं सुमिरण करें ! हम स्त्री पुरुष के माया  के चादर रुपी शरीर में हैं |  सत्य तो यह की श्री कृष्ण एक मात्र पुरुष हैं | बाकीं हम सभी जीव उनकी प्रेमिका हैं | हम सब मानव शरीर  उनके प्रेम को प्राप्त करने के उदेश्य के लिए ही प्राप्त किये हैं | हम अपनी अनंत काल की घनघोर अज्ञानता के कारण अपने को स्त्री पुरुष समझ बैठे हैं | जबकी हम सब उनकी हीं दासी हैं उनकी दासतां ही हमारा एक मात्र धर्म हैं | और उनकी दासता को स्वीकार कर , मान कर , पुर्ण शरणागत् हो उनकी हीं सेवा करें | जिससे परमानंद मिल जाएगा एक दिन  | :- प्रवचन से महाराज जी के

ब्रह्मा का एक दिन हमारे कितने दिनों के बराबर होता है ? भगवान श्रीकृष्ण कब आते हैं धरा पर , जानिए श्री कृपालु महाप्रभु जी से ।।

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ब्रह्मा का एक दिन मानें  :- चार युग होता है - सतयुग १७,२८,००० वर्ष, त्रेता १२,९६,००० वर्ष , द्वापर ८,६४,००० वर्ष एवं कलियुग ४,३२,००० वर्ष का होता है । तो चारों को मिला कर हुए ४३,२०,००० वर्ष जिसको चार युग कहा जाता है । ये ७१ बार बीतने पर एक मनवंतर होता है ।ऐसे चौदह मनवंतर बीतने पर ब्रह्मा का एक दिन यानी ४३,२०,००० से ७१ को गुणा करने से ३०६७२०००० वर्ष और इसमें १४ से गुणा करने से  ४,२९,४०,८०,००० वर्ष । और इतने वर्षों की एक रात होती है ।  ब्रह्मा के एक दिन में १४ मन्वन्तर होतें हैं जैसे स्वयंभुव , उत्तम , तामस , रैवत, वैवस्वत, सावर्णि, दक्ष सावर्णि , ब्रह्म सावर्णि , धर्म सावर्णि , रुद्र सावर्णि , देव सावर्णि , इन्द्र सावर्णि इत्यादि । वर्तमान, जो मन्वन्तर चल रहा है , वह है सातवाँ मन्वन्तर , जिसका नाम है वैवस्वत । इस वैवस्वत मन्वन्तर में २७ बार चार युग बीत जाने पर जब २८ वें चतुर्युग में द्वापर के शेष में स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण गोलोक से सीधा अपने धाम , परिकरों सहित इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं , जो आज से ५१२८ वर्ष पूर्व घट चुका है । यह स्वयं श्रीकृष्ण ब्रह्मा के एक दिन में एक ब...

गुरू द्वारा कठिन परीक्षा ।

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गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार, बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।। भगवान को पाने के लिए हमे गुरु निर्दिष्ट साधना करनी होगी। इसी 'साधना' हेतु हमारे 'कृपालु गुरुदेव' निरंतर अथक परिश्रम कर रहे हैं किन्तु जैसे-जैसे साधक इस मार्ग में अग्रसर होता है उसकी परीक्षाएँ कठिन होती जाती हैं। गुरुदेव का व्यवहार भी समझ से परे होने लगता है। वो उल्टा व्यवहार करने लगते हैं, हम सोचते हैं हमें पहचानते नहीं,जानते नहीं,हमसे अब बात नहीं करते और गुरु में दोष बुद्धि लगा बैठते हैं, तब हमारी भ्रष्ट बुद्धि गुरुदेव संभाल लेते हैं। बाहर से विपरीत व्यवहार करते हुए भी वे अपने सच्चे साधक को अंदर ही अंदर संभालते रहते हैं, बहुत तरह की कठिन परीक्षा लेता है गुरु भी, अत: इस साधना के लिए गुरु भक्ति परमावश्यक है और गुरु भक्ति करना अति कठिन है। प्रेम अथवा भक्ति के ध्वंस होने का कारण हो फिर भी अनुकूल चिंतन बना रहे- यह कठिन है किन्तु परेशान न हों-साँच अर्थात सरल के लिए यह भक्ति सरल है। हम सबको पूर्ण विश्वास है कि गुरु कृपा से हम एक दिन अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। " यह कृपालु जिय पर...

भगवान को पाने के लिये और कोई साधन काम नहीं देगा | केवल एक साधन है | क्या ?

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परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्                  ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन | तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्                 समित्पाणि:       श्रोत्रियं     ब्रह्मनिष्ठम्  ||                                 ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ) इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि बड़े - बड़े योगियों ने , तपस्वियों ने , अनेक प्रकार के साधन किये किन्तु थक गये | न तो माया निवृत्ति हुई और न आनन्द प्राप्ति हुई | कोई लक्ष्य हल नहीं हुआ | स्वर्ग तक गये | स्वर्ग के सुखों को देखा , भोगा और वैराग्य हो गया | ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बीमारियाँ स्वर्ग में भी हैं |  और वह भी कुछ दिन के लिय मिलता है | तब उन लोगों ने निश्चय किया कि उस ब्रह्म को जानने के लिये , भगवान को पाने के लिये और कोई साधन का...

हमारे परम प्रिय गुरूदेव श्री कृपालु महाप्रभु जी का आदेश क्या है हमारे लिए ?

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ध्यान दिजिए !  पुनि तेहि रसहिं पिवाइय औरहिं , आपुहूँ सोइ रस पीजिये । पिय मोल अमोलक लीजिये । श्री महाराज जी के उपर्युक्त पद् हमलोगें के लिए आदेश है । क्या आदेश है इस पद् के द्वारा ?  युगलशरण जी महाराज :- देखिए, हम प्रचारक, आश्रमवासी, आप सत्संगीगण, हमारे भविष्य ये बच्चे ( सत्संगियो के बच्चे ) , हमारा लक्ष्य क्या है ? हमें श्री महाराज जी को परम सुख प्रदान करना है । इसके लिए क्या करना होगा ? आत्मकल्याण और जो पूँजी हमें मिली है उसको समस्त जगत में बाँटना । उस रस को पीना है और सबको पिलाना है । यह हम लोगों की जिम्मेदारी है । जो अमूल्य निधि हमको मिली है, उसका आस्वादन स्वयं करेंगें, एवं औरों को भी कराएँगें । पूर्व प्रांत का वैशिष्ट्य है सूक्षम बुद्धि । पश्चिम प्रांत में परिचालना संबंधी योग्यता , उत्तर भारत में सक्रियता , दक्षिण में अनुशासन और विदेश में गतिशीलता । हम साधना करना चाहते है न !  ये सभी गुण होने चाहिए साधक में । तो हम चारों ( प्रचारक, आश्रमवासी, सत्संगीगण, सत्संगियों के बच्चे ) लग जाएँ तैयारी में । हम जो श्री महाराज जी के परिवार में आए हैं , औरों से अलग हैं यदि हम सब मिल...

हमारा संवल एक मात्र भगवान और गुरू हैं । कैसे ? जरूर पढीए ।।

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बहूत बहूत महत्वपूर्ण , हो सके तो समय निकाल कर पुरा जरुर पढ़े , । :-  *****************************************"  हमारे संबंल एक मात्र हमारे प्राणों से भी प्यारे  श्री महाराज जी हीं हैं । एक वही हम सभी के संबल है जो जो लोग उनको पुरे ह्रदय से मानता हीं नही वल्कि उनसे प्यार करता है । हर पल उनको अपने साथ महसूस करता है , अपने ह्रदय में रखता है । वही लोग सुरक्षित है । वहीं एक मात्र सर्व समर्थ हमारे माता पिता हैं , हमारे रक्षक हैं ,हमें कुसंग से बचाकर सत्संग के रास्ते पर प्रेरित करने वाले श्री महाराज जी हीं और उनके जन ही, प्रचारक हीं  एक मात्र हमारे अपने है ।  श्री युगल शरण जी महाराज जी के प्रवचन का अंश -  संसार में संसारिक सम्पत्ति हो या पद् पद्ववी हो या सकाम संबन्धी आदि हो विप्पत्ति के समय कोई काम नही आता है । जब शरीर ही हमारा एक दिन साथ छोड़ देगा , जो कि निश्चित है , अटल है तो शरीर संबन्धी किसी भी वस्तु या व्यक्ति और संसारिक सम्पत्ति पर विश्वास करना सर्वदा हास्यस्पद् है । यह सारे संसारी वस्तु हमारे आपके संसारिक सुख के हीं साथी है । विपत्ति आने पर संसार में सब स...