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विशाखा दीदी , श्री कृपालुजी महाप्रभु की बड़ी पुत्री का वास्तविक स्वरूप ।

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ब्रज बनचरी दीदी के प्रवचन का अनुवाद - हमारी प्यारी बड़ी दीदी बड़ी दीदी इनका नाम “विशाखा” है हम सब उन्हें प्यार से बड़ी दीदी बुलाते हैं । वैसे उनके बारे में बोलने का मौका नहीं मिलता पर कुछ सत्संगियों ने निवेदन किया कि मैं दीदी के बारे में कुछ बताऊँ ।    मैं उन्हें बचपन से जानती हूँ जब वो बहुत छोटी थीं और हमारे घर में हमारे संग में रहती थीं, उस समय से मैंने उनके अंदर कुछ अद्भुत गुण देखे हैं ।   सबसे पहले मैं बता दूँ बहुत पहले जब मैं दस साल की थी मैंने महाराज जी से पूछा एक बार “ महाराज जी मुझे घनश्याम, बालकृष्ण, श्यामा और कृष्णा का मतलब समझ में आता है पर विशाखा का मतलब क्या होता है? मुझे पता है विशाखा श्री राधा रानी की अष्ट महासाखियों में से एक थी पर फिर भी विशाखा का मतलब क्या होता है ?" इसके उतर में श्री महाराज जी ने कहा “ वि” मतलब “अनोखी” और “शाखा” मतलब “पेड़ की एक टहनी” – दिव्य प्रेम की उस अनोखी शाखा को विशाखा कहते हैं और यही गुण विशाखा सखी, जो की अष्टमहासाखियों में से एक हैं, उनमें भी देखा जाता हैं । इस प्रकार हम (बड़ी दीदी) को विशाखा महासखी का स्वरुप भी कह सकते ...

चलिए गोलोक‌ के बारे में जानते हैं आज ।। गोलोक का वर्णन विस्तृत रूप से :-ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन के साथ हम भी भाव‌ देह से वहां चलते हैं ।

चलिए गोलोक‌ के बारे में जानते हैं आज ।। गोलोक का वर्णन विस्तृत रूप से :- ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन के साथ हम भी भाव‌ देह से वहां चलते हैं ।  भगवान विष्णु द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण कर देवतागण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग से करोड़ों योजन ऊपर गोलोकधाम में पहुंचे। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है। गोलोकधाम परमात्मा श्रीकृष्ण के समान ही नित्य है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगमायाशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है। प्रलयकाल में भी वहां श्रीकृष्ण अपने जनों के साथ परिकरों के साथ रहते हैं । वो गोलोक गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक लोक से सटा साकेतपुरी है , उसके नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। वैकुण्ठ व शिवलो...

भगवान‌श्री कृष्ण की सब कुछ अनंत है ।

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*आप लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ जानते हैं, जो कुछ करते हैं, तीन- ज्ञान, बल, क्रिया यानी ज्ञान, बल, माने इच्छा क्रिया। ये तीन भगवान् में पूर्ण-पूर्ण और हमारे अन्दर क्षुद्र-क्षुद्र, थोड़ी-थोड़ी। लेकिन वहीं से कनेक्टेड हैं सदा। उन्हीं की शक्ति से ये शक्तिमान् हो रहा है जीव और उन्हीं की शक्तियों से शक्तिमती, जितनी भी शक्तियाँ हमारी वर्क कर रही हैं जितनी शक्तियाँ भगवान् में हैं उतनी हमारे अन्दर भी हैं लेकिन एक के पास पारस है, एक के पास एक लाख रुपया है। पारस तो अनन्त रुपया बनाता जायगा और बना रहेगा स्वयं और एक लाख रुपया क्या है आज, दो-एक साल में समाप्त हो जाता है। लेकिन है सब चीज हमारे पास भी क्योंकि हम सत्, चित्, आनन्द ब्रह्म के अंश हैं इसलिये सन्धिनी, संवित्, ह्लादिनी, तीनों शक्तियों का रियेक्शन हमारे साथ है। वो भी चेतन, हम भी चेतन, वो भी अनादि, हम भी अनादि, वो भी नित्य, हम भी नित्य। लिमिट का भेद है। हम लिमिटेड हैं वो अनलिमिटेड है, बस। मोटी-सी परिभाषा समझिये हमारी सब चीजें सीमित हैं, उसकी सब चीजें सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। कोई भी चीज़ भगवान् की सान्त नहीं है, सीमित नहीं है, सब अनन्त। सत्ता...

धर्म का पालन किया जाता है रक्षा नहीं । धर्म का पालन करने से धर्म जीव की रक्षा करता है । जीव धर्म कि रक्षा नहीं कर सकता । इसलिए हम सनातन धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।

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धर्म का पालन किया जाता है रक्षा नहीं ।  धर्म का पालन करने से धर्म जीव की रक्षा करता है । जीव धर्म कि रक्षा नहीं कर सकता ।  इसलिए हम सनातन धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।  धर्म का मतलव जो धारण करने योग्य हो ।  धर्म क: ?  धारयेति इति धर्म : ।। धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः । यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।  ( महाभारत ) "धर्मः ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः,  धरति धारयति व लोकम् इति धर्मः,." ( महाभारत) तो अधर्मी और विधर्मी से सदैव सचेत और सावधान रहना चाहिए। शास्त्रों के अनुकूल चलें, मन से तो बंदर चलता है। वेद कहता है-“धर्मं चर,” अर्थात् धर्म का पालन करो;  “धर्मेण सुखमासीत्,” अर्थात् धर्म से लौकिक सुख मिलता तथा प्रारब्ध अच्छा बनता है;  “धर्मान्न प्रमदितव्यम्”, अर्थात् धर्म में प्रमाद या असावधानी नहीं करनी चाहिये।। धर्म क्या है ? जिसे धारण किया जा सके वो धर्म है । जैसे आग का धर्म है गर्मी प्रदान करना , जलाना । जैसे बर्फ का धर्म है ठंडक प्रदान करना ।  उसी प्रकार जीव की अवस्था के अनुसार हमारे सनातन व...

निराशा‌ क्यों आती है ।

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श्री महाराज जी :- जो प्राप्त वस्तु है उसका अनादर करने से निराशा आती है। सोचो, हमको मानव देह मिला, भारत में जन्म मिला महापुरुष मिला, तत्वज्ञान मिला, उसके द्वारा दिया हुआ, तो सात अरब आदमियों में कितने आदमी हमारे बराबर है जिनको ये सब सौभाग्य प्राप्त है। कितने हजार आदमी है, कितने लाख आदमी है जिनको इतनी भगवत्कृपा मिली है जितनी हमको मिली हैं।  तो तुम्हारे दिमाग में ये आएगा कि ऐसे तो बहुत कम लोग है। बार - बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि कितना सौभाग्यशाली हूँ कितनी भगवत्कृपायें मेरे ऊपर हुई है।  1) देव - दुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी - किसी भाग्यशाली को ही मिलता है, फिर मेरे जैसा सौभाग्यशाली कौन होगा जिसको ऐसा गुरु मिला जो केवल कृपा ही करता है। जब उनका अनुग्रह प्राप्त है तो निराशा की क्या बात है। धिक्कार है, मेरे जीवन को। अपनी बुद्धि को उनके श्रीचरणों में डाल दो तो निराशा हट जायेगी। और अगर हट गई और मृत्यु हो गई, तो अगले जन्म में फिर आपको आशावाद के अनुसार ही फल मिलेगा।  2) प्राप्त कृपाओं का बार - बार चिन्तन करन...

भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।

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भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।। पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।। पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।। सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ।।  भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।  इन सबको भक्ति के आधार की जरूरत है लेकिन भक्ति को इन सब के आधार की कोई आवश्यकता नहीं है ।  यानि जप तप व्रत पुजा यज्ञ उपवास में अगर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रति भक्ति का भाव नहीं है , उनका रूपध्यान नहीं है तो यह सब बेकार है , फल रहित है । लेकिन भक्ति में इन सबकी कोई जरूरत नहीं है ।  भक्ति में केवल अपने गुरू के साथ सत्संग, अनन्य होकर उनके आदेशों का पालन ,‌ उनकी शरणागति तथा उनकी निष्काम सेवा की जरूरत है ।  जप तप व्रत उपवास पूजा यज्ञ आदि कर्मकांड में बड़े बड़े कायदा कानून हैं , नियम का उल्लघंन हुआ दंड मिलेगा । लेकिन भक्ति में न कोई नियम है और न कोई कायदा कानून हैं ।  उपर से आज इस कलयुग में इनके कठीन कठीन नियमों का पालन करना किसी के लिए...

अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ?

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बहुत महत्वपूर्ण तत्वज्ञान :-  प्रश्न :- अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ?  उत्तर :- आज तक थोड़ा भी भगवद् प्रेम का आभास तक नहीं हुआ आप लोगों को , क्योंकि आप लोग अपने ईष्ट और गुरू के प्रति अनन्य नहीं रहे । मक्खी कि तरह यहां वहां सब जगह बैठते फिरे । जो आया शहर में प्रवचन देने , या टी भी आदि पर , जाकर सुन आए , ताली बजा आए ।  श्री महाराज जी का स्पष्ट आदेश है -भगवद् विषय कि बातें अपने गुरू के अलावा किसी से न सुनो और न देखो ।  सब का अपना अपना अलग अलग मार्ग है , अलग अलग तरीका है बताने का ।  ये ऐसा बोल रहे हैं जबकि महाराज तो ऐसा बोले है, आ गया मन में , बस हो गया संशय और महापुरूषों का अपमान , और अपमान से बढ़ कर दुसरा नामापराध नहीं है कोई ।  श्री महाराज जी ने यहां तक मना किया है कि खुद से गीता , रामायण , भागवद् तथा अन्य शास्त्र भी नहीं पढ़ना है ऐसा करना भी कुसंग है । पढ़ेंगे तो अपनी दो अंगुली की खोपड़ी से अपनी बुद्धि लगा कर शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करेंगे आप लोग ।  जिससे दिमाग में कन्फ्यूजन पैदा होगा ,संशय पैदा होगा और ...

जब तुमको मैं मिल गया हूं और तुमने मुझे अपना मान लिया है तो फिर चिंता क्यों करती हो ।

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जब तुमको मैं मिल गया हूं और तुमने मुझे अपना मान लिया है तो फिर चिंता क्यों करती हो ।  मैं हूं न ! ये संसारिक सुख दुख तो प्रारब्धबस आता जाता रहता है , हमेशा नहीं रहता । प्रारब्ध है हस के भोगों और आगे बढ़ो , सब समय एक जैसा नहीं रहता , अप डाउन होता रहता है प्रारब्ध के कारण , चिंता मत करो । चिंता तो तभी होती है जब किसी जीव को अपने गुरू और ईष्ट पर भरोसा नहीं है । हरि गुरू किसी को दुख नहीं देते हैं ।अरे वो तो कृपालु है , हमेशा कृपा हीं करते हैं, अंदर ही अंदर संभालते रहते हैं , शरणागत का योग क्षेम वहन करने का जिम्मेदारी उनका है , तुम क्यों चिंता करते हो । भगवान और गुरू में मन लगाना तुम्हारा काम है वांकी सब हम पर छोड़ दो । :- श्री महराज जी , मनगढ़ धाम ।

गोलोक का वर्णन

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चलिए गोलोक‌ के बारे में जानते हैं आज ।। गोलोक का वर्णन विस्तृत रूप से :- ब्रह्मादि देवताओं द्वारा गोलोकधाम का दर्शन के साथ हम भी भाव‌ देह से वहां चलते हैं ।  भगवान विष्णु द्वारा बताये मार्ग का अनुसरण कर देवतागण ब्रह्माण्ड के ऊपरी भाग से करोड़ों योजन ऊपर गोलोकधाम में पहुंचे। गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। वहीं तक सृष्टि की अंतिम सीमा है। गोलोकधाम परमात्मा श्रीकृष्ण के समान ही नित्य है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगमायाशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। उसकी लम्बाई-चौड़ाई तीन करोड़ योजन है। वह सब ओर मण्डलाकार फैला हुआ है। परम महान तेज ही उसका स्वरूप है। प्रलयकाल में भी वहां श्रीकृष्ण अपने जनों के साथ परिकरों के साथ रहते हैं । वो गोलोक गोप-गोपियों से भरा रहता है। गोलोक लोक से सटा साकेतपुरी है , उसके नीचे पचास करोड़ योजन दूर दक्षिण में वैकुण्ठ और वामभाग में शिवलोक है। वैकुण्ठ व शिवलो...

प्रश्न -भगवद् प्राप्ति क्या है ?

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प्रश्न -भगवद् प्राप्ति क्या है ?  उत्तर :- जीवात्मा का माया से निवृत्ति तथा भगवान में प्रवृत्ति ही भगवद् प्राप्ति का मूल आधार है , दुसरे शब्दों में संसार से मोह ( attachment ) समाप्त हो जाना , यानि संसार से पूर्ण वैराग्य और भगवान में सेंट पर्सेंट मन का अटैचमेंट हो जाना भगवद् प्राप्ति है ।  जीवात्मा जब माया से मुक्त हो जाता है तो उसको मायिक गुणों तथा स्वरूप से मुक्ति मिल जाती है , स्वरूपावरी का माया तथा गुणावरी का माया दोनों से मुक्ति होते ही मायिक दुर्गुणें चली जाती है और जीव को दैविक गुण , भगवदिय गुण यानि ईश्वरीय गुण , ईश्वरीय संपत्तियां , ईश्वरीय आनंद सदा को प्राप्त हो जाता है इसी को भगवद् प्राप्ति कहते हैं ।  स्वरूपावरी का माया मिटने पर जीव का देहाभिमान समाप्त हो जाता है , वो स्वयं को देह नहीं मानता , वो देहभाव से उपर उठ जाता है मानसिक स्तर पर तथा गुणावरी का माया समाप्त होते ही त्रिगुण ( सतोगुण , रजोगुण तथा तमोगुण ) से मुक्ति मिल जाती है , पंचकोष समाप्त हो जाते हैं , पंचकोष भस्म होते ही मायिक दुर्गुणें समाप्त हो जाती है । गुणावरी का माया मिटते ही संसार से वैराग्य तथा म...

भगवद् प्रेमी को पागल ही कहा गया है संसार में ।

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भगवद् प्रेमी को पागल ही कहा गया है संसार में । जब लोग वाग पागल कहने लगे हमें और समझने लगे  , हमारा विरोध करने लगे तथा मजाक उड़ानें लगे तब समझना चाहिए कि हम सही रास्ते पर है । भगवद् प्रेमी संसार से अपमान कि ही अपेक्षा रखता है । जितना अपमान मिलेगा उतना अहंकार जाएगा और दीनता का भाव उतरेगा मन में नेचुरली । जितनी दीनता का भाव उतरेगा मन में उतने ही भगवद् प्रेम का आंसू आएंगे , जितना आंसू आएंगे उतना ही अंत:करण का कलमस धूलेगा , जितना कलमस धूलेगा उतना अंत:करण शूद्ध होगा । और जितना अंतःकरण शुद्ध होगा उतना अंतःकरण दिव्य बना दिया जाएगा गुरू द्वारा और  उतना हीं भगवद् संबंधित बिषयों का प्रत्यक्ष अनुभव होगा हमें  ।  इसलिए संसार से अपमान की ही अपेक्षा रखनी चाहिए, संसार से जो सम्मान कि अपेक्षा रखें उसे साधक व भक्त नहीं कहा जा सकता । ऐसे भी संसार किसी को अच्छा नहीं कहता है । मतलव के अनुसार ही संसार झूकता है किसी के सामने , वरन पीठ पीछे लोग बुराई ही करते हैं एक दुसरे का । श्री राधे । :- पूज्यनीयां रासेश्वरी देवी जी के प्रवचन का सार ।

ब्रह्मा ने सृष्टि के विकास के लिए दस मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन्हें प्रजापति कहा गया।

श्री महाराज जी :- ब्रह्मा ने सृष्टि के विकास के लिए दस मानस पुत्र उत्पन्न किए। इन्हें प्रजापति कहा गया। उनमें प्रथम है-मरीच। महर्षि कश्यप प्रजापति मरीच के पुत्र हैं ।   महर्षि कश्यप समस्त जगत के पिता स्वरूप हैं। सारे प्रणियों की उत्पत्ति इन्हीं से हुई है। इसलिए सभी जीव भाई-भाई हैं । महर्षि कश्यप की तेरह पत्नियाँ थीं। दक्ष प्रजापति ने अपनी तेरह कन्याओं का विवाह महर्षि कश्यप के साथ किया। इन तेरह कन्याओं के नाम इस प्रकार है-अदिति, दिति दनु, काला, दनायु, सिंहिका, क्रोधा, प्राधा, इरा, विनिता, कपिला, मनु एवं कद्रु । इन तेरह पत्नियों से महर्षि की इतनी संतानें हुई कि उस समय रिक्त पड़ी यह पृथ्वी मानव, दानव, देव तथा नाना प्रकार के पशु-पक्षियों कीट पतंगों , वृक्षों एवं लता पताओं घास-फुस फुल आदि से भर गई। महर्षि कश्यप की प्रिय पत्नी अदिति से इंद्र, वरुण, अग्नि, वायु, सूर्य आदि सभी देवता उत्पन्न हुए।  और दिति के दो पुत्र हिरण्याक्ष एवं हिरणकश्यप तथा एक पुत्री सिंहिका हुई। इन दोनों महान दैत्यों का वध करने हेतु भगवान ने दो बार अवतार लिया। दैत्य हिरण्याक्ष का वध करने के लिये वराह अवत...