अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ?

बहुत महत्वपूर्ण तत्वज्ञान :- 
प्रश्न :- अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ? 
उत्तर :- आज तक थोड़ा भी भगवद् प्रेम का आभास तक नहीं हुआ आप लोगों को , क्योंकि आप लोग अपने ईष्ट और गुरू के प्रति अनन्य नहीं रहे । मक्खी कि तरह यहां वहां सब जगह बैठते फिरे । जो आया शहर में प्रवचन देने , या टी भी आदि पर , जाकर सुन आए , ताली बजा आए ।

 श्री महाराज जी का स्पष्ट आदेश है -भगवद् विषय कि बातें अपने गुरू के अलावा किसी से न सुनो और न देखो । 
सब का अपना अपना अलग अलग मार्ग है , अलग अलग तरीका है बताने का । 
ये ऐसा बोल रहे हैं जबकि महाराज तो ऐसा बोले है, आ गया मन में , बस हो गया संशय और महापुरूषों का अपमान , और अपमान से बढ़ कर दुसरा नामापराध नहीं है कोई । 

श्री महाराज जी ने यहां तक मना किया है कि खुद से गीता , रामायण , भागवद् तथा अन्य शास्त्र भी नहीं पढ़ना है ऐसा करना भी कुसंग है । पढ़ेंगे तो अपनी दो अंगुली की खोपड़ी से अपनी बुद्धि लगा कर शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करेंगे आप लोग । 
जिससे दिमाग में कन्फ्यूजन पैदा होगा ,संशय पैदा होगा और "संशयात्मा बिनश्यति " 
कहीं के नहीं रहेंगे ऐसा करने से । 
पढ़ना है तो केवल अपने गुरू श्री महाराज जी के पुस्तकों को ही पढ़ें , सुनना है तो उनके हजारों प्रबचनो को सुनें , उन्होंने बड़े सरल तरीके से समझाया है शास्त्रों को अपने पुस्तकों में, अपने प्रवचनों में । उनके प्रचारकों का सुने , उनके साथ सत्संग करें , उनके प्रचारक उनकी बतलाए सिद्धांतों को ही बोलते हैं । 
हजारों पुस्तकें हैं श्री महाराज जी की , समय कम पर जाएगा पढ़ते पढ़ते जीवन में ,जाकर खड़ीदे और पढ़ें , दुसरे के पास जाने की कोई आवश्यकता नहीं है । 

आज यूं ट्यूब पर, फेसबुक आदि पर श्री महाराज जी के हजारों विस्तृत प्रबचन भरे परे है , उनके प्रचारकों के हैं , सुने उन सबको , कहीं जाने की जरूरत नहीं । 

भक्ति मार्ग में अनन्यता बहुत महत्वपूर्ण है , श्री महाराज जी ने स्पष्ट रूप से कहें है कि जो लोग अनन्यता के नियम का पालन नहीं करते उनका सब कुछ गया , कोई लाभ किसी महापुरुष द्वारा नहीं मिलता है ‌ । 
कोई भी अनुभव नहीं होगा भगवद् मार्ग में , दुसरा अपनी दो अंगुली की खोपड़ी लगा कर अनेक का सुन कर नामापराध अधिक कमाएंगे । 

रोगी को केवल एक ही बढ़िया डौक्टर से इलाज कराना चाहिए, अलग अलग डौक्टर के दवा के सेवन से दवा रियेक्सन करता है और रोगी का मृत्यु तक हो सकता है । 

हम सब भव रोगी है , हमें तो अपना रोग मिटाना है और हमारे पास सद्गुरु श्री कृपालु रूप में सर्वोच्च गुरू प्राप्त है भगवद् कृपा से , तो अनन्य होकर अपने ही गुरू के बतलाई दवा का सेवन करना है , दुसरे के पास नहीं जाना है । नहीं तो लाभ के बदले नुकसान होगा , रोग मिटने के बजाए बढ़ता चला जाएगा , फिर कहेंगे हमको कोई लाभ नही होता , कुछ भी अनुभव नहीं होता , आंसू नहीं आते , हम दुखी हैं जीवन में । 
अरे अनन्यता भंग हुआ की गुरू आंसू छीन लेते हैं , जाओ जाकर दस जगह मुंह मारो अब । 

दुसरा उदाहरण - एक ही जगह खुदाई करने से पानी मिलता है । नहीं तो आज यहां दस फिट खोदा पानी नहीं मिला , तुरंत दुसरी जगह खोदना शुरू किए , इस प्रकार जीवन भर अलग अलग जगह खोदते रहोगे, पानी कहीं नसीब नहीं होगा । 
इसलिए भक्ति मार्ग में अनन्यता सबसे पहले आवश्यक है ,
अनन्यता भंग होने पर किसी भी महापुरूष की कृपा नहीं मिलेगी । याद रहे , । 

:- पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी के प्रवचन से ।

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