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Showing posts from December, 2023

मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं |" गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् " ( नारद जी )" सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् " ( रुपगोस्वामी)" अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे " ( वेदव्यास )

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मुक्ति की कामना तो भुक्ति से भी भयानक हैं | " गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षण वर्धमानम् "                                     ( नारद जी ) " सर्वाभिलाषिताशुन्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम् "                                     ( रुपगोस्वामी) " अहैतुक्यव्यवहिता या भक्ति: पुरुषोत्तमे "                                    ( वेदव्यास ) तात्पर्य यह कि सभी शास्त्रों का यही निर्विवाद सिद्धान्त है , कि मौक्षपर्यन्त की इच्छायें भगवत्प्रेम में बाधक हैं | इस विषय में तुलसीदास का एक दोहा मुझे अत्यन्त प्रिय लगता है :-  बध्यो बधिक पर्यों पुन्यजल | उलटि उठाई चोंच | तुलसी चातक प्रेम पट | मरतहुं लगी न खोंच || अर्थात एक बहेलिये ने , एक चातक को बाण मारा | वह चातक पुण्यसलिला भगवती - भागीरथी-गंगा में बाण से बिंधा हुआ गिर गया , किंन्तु उसन...

"भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी "" तेही अधीन ज्ञान विज्ञान" " त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक "

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''ज्ञानकर्मानद्यनावृतं ''  अर्थात् भक्ति में ज्ञान , कर्म , यज्ञ, दान , योग , तपस्या , आदि का आवरण नहीं होता |  तुलसी के शब्दों में भी :- "भक्ति स्वतंत्र सकल सुख खानी " " तेही अधीन ज्ञान विज्ञान"  " त्यागहिं कर्म शुभाशुभ दायक " भागवत कहती है :-  "आज्ञायैवं गुणान्दोषान्मयादिष्टानपि स्वकान्  धर्मान्सत्यज्य य: सर्वान्मां भजेत्स च सत्तम: "                                   (भागवत् ११ वा स्कंध) अर्थात भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि वर्णाश्रम- व्यवस्था का विधि - निषेधात्मक विधान मेरा ही वनाया हुआ है , किन्तु जो उसे छोड़कर एकमात्र मेरा ही भजन करता है , उसे कर्मो के परित्याग का दोष नही लगता , एवं वह मेरा अत्यन्त प्रिय हो जाता है |  किंतु यह स्मरण रहे कि यदि भगवदाराधना भी नहीं करता , एवं उन विधि - निषेधात्मक भगवद्विधान का परित्याग कर देता है , तो वह विधान के अनुसार ही दण्डनीय होगा |  यह नियम तो एक विशेष नियम है कि भगवान् निमित्त उसने समस्त धर्मो का परित्याग किया हैं , अतएव यह...

हमारे सद्गुरू देव श्री कृपालु महाप्रभु जी ने क्या दवाई और संयम बतलाई है हमें । हमें उनके बतलाए किस दवा का पान करना है और क्या संयम रखना है ।

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तो हमारे सद्गुरू देव श्री कृपालु महाप्रभु जी ने क्या दवाई और संयम बतलाई है हमें । हमें उनके बतलाए किस दवा का पान करना है और क्या संयम रखना है । ❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️❤️ तो सबसे पहला :-  १. किसी दुसरे साधकों में दोष कभी मत देखो , खुद में दोष देखो । रात को सोने समय यह देखो कि आज मुझसे कहां कहां गलती हुई और प्रण करो कि कल दुबारा वहीं गलती ना हो , दुसरा - २. प्रत्येक जीवों में अपने ईष्ट को मानों । ३. स्वयं के ह्रदय में हर पल अपने ईष्ट को और गुरू को मानो, तुम अकेले नहीं हो , वो सदा तुम्हारे साथ हैं, यह हर पल महसूस करो । ४. अपना संसार का काम करते हुए हरेक दस पंद्रह मिनट में यह सोचो की वो मुझे देख रहे हैं जो भी मैं कर रहा हुं सब नोट कर रहे हैं।  ५. जब भी थोड़ा समय मिले उनका ध्यान कर लो , राधा नाम लेते रहो , सांस सांस में , खाली समय में उनका ध्यान करते हुए उनके गुणों का चिंतन करो । यह कर्मयोग की साधना हुई । ६. अब प्रत्येक दिन, रात को या सुबह समय निकाल कर , या जब भी समय मिले कर्म संन्यास की साधना करो, यानी एकांत में बैठ जाओ थोड़ी देर के लिए और भगवान का, गुरू का रूपध्यान करते हुए...

भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्राकृत जगत में अवतरण का मुख्य कारण

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स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण के इस प्राकृत जगत में अवतरण का मुख्य कारण :-  चार प्रकार की ऐश्वर्य ज्ञान रहित-माधुर्यमय भक्ति होती है , जिसका आस्वादन करने के लिए रसिक शेखर श्रीकृष्ण सदा लालायित रहते हैं । इस रस में वह चमत्कारिता है कि स्वयं आत्माराम पूर्णकाम आत्मतृप्त भगवान् को भी यह व्याकुल कर देती है । परंतु यह शुद्ध माधुर्य रस ब्रजधाम यानि वृंदावन के सिवा और किसी धाम में नहीं इसलिए इस रस के रसास्वादन हेतु स्वयं श्रीकृष्ण एवं उनकी स्वरुप शक्ति ही अनादिकाल से दास, सखा, माता, पिता एवं कांतागणों के रुप में आत्मप्रकटित होते हैं । इन चारों भागों के परिकरों की सहायता के बिना श्रीकृष्ण इस रस का रसास्वादन नहीं कर सकते । अत: वे इन चारों भागों के परिकरों के वशीभूत रहते हैं । इन परिकरों को नित्य परिकर कहा जाता है । इनके प्रेम में आविष्ट होकर उनके साथ प्रभु अद्भुत लीलाएँ करतें हुए प्रेम रस का आस्वादन करते हैं । और इसिलिए भगवान् स्वयं ब्रह्मा के एक दिन में एक बार प्राकृत जगत् के इस धराधाम पर श्रीवृंदावन धाम में अपने परिकरों के साथ प्रकट होकर लीला क़रते हैं, प्रेम रस लुटाते हैं तथा स्वयं अपने भक्तों ...

श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी

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श्री कृपालु महाप्रभु जी कि दिव्य वाणी :-  १. "एक दिन ऐसा आएगा जब परिस्थिति ऐसे दुराग्रही नास्तिकों को भी आस्तिक बना देगी तथा वे भी कृतार्थ हो जाएँगे।":- श्री महाराज जी ।। २. "जैसे आँख से शब्द का,कान से रूप का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता, इसी प्रकार सिर्फ साधना भक्ति से आध्यात्मिक तत्त्व का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकता।" :- श्री महाराज जी ।।  ३. "महापुरुष को समझने की जटिल समस्या यदि सुलझ जाए, तब फिर बिना किसी किंतु, परंतु, लेकिन, मगर, चूँकि के ही जीव सीधे अपने लक्ष्य पर पहुँच जाएगा।" :- श्री महाराज जी ।। ४.भक्तिमार्ग का अधिकारी वह है जो न तो सांसारिक विषयों में अत्यन्त आसक्त ही होता है, और न तो साधन-चतुष्टयाँ की भाँति अत्यन्त विरक्त ही होता है :- श्री महाराज जी । ५."यदि भगवान् को सर्वांतर्यामी सर्वज्ञ समझकर यह सब उन्हीं पर छोड़ दिया जाए, तो मांगने की बीमारी ही उत्पन्न न होगी" ।। :- श्री महाराज जी ।। ६.भगवद् प्राप्ति का प्रमाण :-  "महापुरूष की प्राप्ति एवं उसके प्रति पूर्ण विश्वास ही भगवत्प्राप्ति का पक्का प्रमाण है।" - श्री महाराज जी ।...

परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान् , ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन |तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् ,समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् || ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ )

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परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्                  ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृत: कृतेन | तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत्                 समित्पाणि: श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम् ||                                 ( मुण्डकोपनिषद् १-२-१२ ) इस मंत्र का अभिप्राय यह है कि बड़े - बड़े योगियों ने , तपस्वियों ने , अनेक प्रकार के साधन किये किन्तु थक गये | न तो माया निवृत्ति हुई और न आनन्द प्राप्ति हुई | कोई लक्ष्य हल नहीं हुआ | स्वर्ग तक गये | स्वर्ग के सुखों को देखा , भोगा और वैराग्य हो गया | ये स्वर्ग भी हमारे मृत्यु लोक की तरह है , कोई अन्तर नही है | वहाँ भी काम, क्रोध , लोभ , मोह, मद, मात्सर्य , ईर्ष्या , द्वेष सब बीमारियाँ स्वर्ग में भी हैं |  और वह भी कुछ दिन के लिय मिलता है | तब उन लोगों ने निश्चय किया कि उस ब्रह्म को जानने के लिये , भगवान को पाने के लिये और कोई साधन काम नहीं देगा | केवल एक साधन है | क्या ?...

हम हार गये आप लोगों से...!*हमारा जो परपज है कि *तुम लोग भगवान् की ओर चलो, गन्दी भावनायें अन्तःकरण में न लाओ ये हम आशा करते हैं।

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*हम हार गये आप लोगों से...!* हमारा जो परपज है कि *तुम लोग भगवान् की ओर चलो, गन्दी भावनायें अन्तःकरण में न लाओ ये हम आशा करते हैं। हमने अपना सारा जीवन तुम लोगों के लिये अर्पित किया है इसलिए कि तुम लोग एक आदर्श शिष्य बनो,* जो भी देखे बाहर वाला या तुम्हारे घर वाला कोई देखे माँ, बाप, कोई अरे कितना बदल गया ये, कितनी नम्रता है इसमें, हाथ जोड कर बात करता है, हर एक से मीठा बोलता है, क्रोध नहीं करता है। अगर क्रोध आ भी जाय तो भीतर उसको समाप्त कर दो। बाहर से वाक्य न बोलो तो वो बात आगे नहीं बढ़ेगी। फिर एक बात तो ये मुझे कहनी है, कि *आप लोग अपना सुधार करें और हमको भी सुख दें।*माया से छुटकारा मिल जाय ये सब उद्देश्य आप लोगों का घर से रहा होगा, और न रहा हो तो ये होना चाहिए। *मनुष्य देह पाये, भारत में जन्म हो, और गुरु भी मिल जाय, और वो गुरु समझ में आ जाय, सब बात बन जाय और फिर भी हम अपना कल्याण न करें, तो इससे गुरु को दुःख होता है, ये सेवा नहीं है । सेवा का मतलब स्वामी को सुख देना । किसी भी बाप को उसी सन्तान से सुख मिलेगा, जो सन्तान अच्छे आचरण वाली हो, जिसका स्वभाव सरल हो, दीन हो, नम्र हो, मधुर हो, बाप ...

गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार,बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।।

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गुरु भक्ति अति कठिन है ज्यों खाड़े की धार, बिना साँच पहुँचे नहीं महा कठिन व्यवहार।। भगवान को पाने के लिए हमे गुरु निर्दिष्ट साधना करनी होगी। इसी 'साधना' हेतु हमारे 'कृपालु गुरुदेव' निरंतर अथक परिश्रम कर रहे हैं किन्तु जैसे-जैसे साधक इस मार्ग में अग्रसर होता है उसकी परीक्षाएँ कठिन होती जाती हैं। गुरुदेव का व्यवहार भी समझ से परे होने लगता है। वो उल्टा व्यवहार करने लगते हैं, हम सोचते हैं हमें पहचानते नहीं,जानते नहीं,हमसे अब बात नहीं करते और गुरु में दोष बुद्धि लगा बैठते हैं, तब हमारी भ्रष्ट बुद्धि गुरुदेव संभाल लेते हैं। बाहर से विपरीत व्यवहार करते हुए भी वे अपने सच्चे साधक को अंदर ही अंदर संभालते रहते हैं, बहुत तरह की कठिन परीक्षा लेता है गुरु भी, अत: इस साधना के लिए गुरु भक्ति परमावश्यक है और गुरु भक्ति करना अति कठिन है। प्रेम अथवा भक्ति के ध्वंस होने का कारण हो फिर भी अनुकूल चिंतन बना रहे- यह कठिन है किन्तु परेशान न हों-साँच अर्थात सरल के लिए यह भक्ति सरल है। हम सबको पूर्ण विश्वास है कि गुरु कृपा से हम एक दिन अपने लक्ष्य को अवश्य प्राप्त कर लेंगे। " यह कृपालु जिय पर...