"जाके प्रिय न राम बैदेही ।तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।

श्री महाराज जी - मीरा को जब उसके ससुराल में भगवान श्री कृष्ण की भक्ति करने से रोका जाने लगा  , भगवान श्री कृष्ण की भक्ति में  बाधा उत्पन्न किया जाने लगा उसके परिवारवालों के द्वारा , तरह तरह का कष्ट दिया जाता था उसे , भगवान श्री कृष्ण के विग्रह को फेंक दिया जाता था । तो मीरा दुखी होकर  तुलसीदास जी को  पत्र लिखी और उनसे पुछी कि ऐसे में मैं क्या करूं ? कभी कभी तो मेरी इच्छा होती है मैं सबको त्याग दूं सदा के लिए , इसमें कोई पाप तो नहीं ? 
तो तुलसीदास जी ने मीरा के पत्र का ज़बाब दिया वो उनके विनय पत्रिका में हैं आप सब पढ़ लीजिएगा  ।
उन्होंने मीरा को लिखा कहा -

"जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि  परम  सनेही ।।1।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु , भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं,भए मुद-मंगलकारी।।2।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां  लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।3।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम –पद , एतो मतो     हमारॉ ।।

भावार्थ , तुलसीदास  ने मीरा को कहा कि मेरा मत है कि जो रिस्तेदार , भगवान की भक्ति में बाधा उत्पन्न करें और जिनके ह्रदय में राम और सीता ना हो उनको त्याग देने में ही जीव का भला  है ।
प्रेम में जो बाधा उपस्थित करे ,भगवान के भक्ति के मार्ग में जो रुकावट डाले , ऐसे व्यक्ति यदि तुम्हारा  खास रिस्तेदार जैसे मां , बाप , भाई, बहन, पति, पत्नी या संतान, या शिक्षक या वो गलत गुरू जो भगवान के निष्काम प्रेम को छोड़ कर संसार देने का दावा करें , संसार के भोग और ऐश्वर्य के तरफ जीव को ले जाए तो उसका त्याग करना ही श्रेष्ठ है  । 

जैसे- प्रहलाद ने पिता का त्याग किया , विभीषण अपने सगे भाई रावण से अलग हुआ , भरत ने अपनी माता कैकेई से मुख मोड़ा, राजा बलि अपने गुरु शुक्राचार्य का त्याग किया  , ब्रज की गोपियाँ ने अपने पतियों का साथ छोड़ा  । 

उस अंजन को आँखों में लगाने का क्या फायदा जिससे आँख ही चली जाय ? यदि अपने प्रियजन रघुनाथ जी के प्रेम से ही वंचित करने लग जायं,तो उन्हें त्याग कर प्रभु –प्रेम में लगना चाहिए ।...
अतः हमें केवल उन्हीं माता पिता भाई बंधु का संग करना चाहिए जो खुद भगवान में श्रद्धा ,विश्वास आस्था रखते हो और अपने संतानों को भी भक्ति मार्ग की प्रेरणा देते हो ।‌ बाधा उत्पन्न करने वाले माता-पिता चाहे अति प्रिय क्यूँ न हो उसका त्याग कर देने में कोई बुराई नहीं है कोई अधर्म नहीं वल्कि जीव का कल्याण है । 

:- श्री महाराज जी । 

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