भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।

भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।।
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।।
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।।
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ।। 

भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है । 
इन सबको भक्ति के आधार की जरूरत है लेकिन भक्ति को इन सब के आधार की कोई आवश्यकता नहीं है । 
यानि जप तप व्रत पुजा यज्ञ उपवास में अगर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रति भक्ति का भाव नहीं है , उनका रूपध्यान नहीं है तो यह सब बेकार है , फल रहित है ।
लेकिन भक्ति में इन सबकी कोई जरूरत नहीं है । 

भक्ति में केवल अपने गुरू के साथ सत्संग, अनन्य होकर उनके आदेशों का पालन ,‌ उनकी शरणागति तथा उनकी निष्काम सेवा की जरूरत है । 

जप तप व्रत उपवास पूजा यज्ञ आदि कर्मकांड में बड़े बड़े कायदा कानून हैं , नियम का उल्लघंन हुआ दंड मिलेगा । लेकिन भक्ति में न कोई नियम है और न कोई कायदा कानून हैं । 
उपर से आज इस कलयुग में इनके कठीन कठीन नियमों का पालन करना किसी के लिए असंभव है , अगर अपवाद स्वरूप कोई एक दो जीव इनके नियमों का पालन कर भी ले तो मिलेगा क्या ? संसार का सामान , और इस संसार में सुख नहीं है । संसार के किसी सामान में जितना ईंद्रियादिक सुख दिखाई पड़ता है , एक समय उसी सामान से दुख मिलना शुरू हो जाता है ।  

कलयुग में केवल भगवान और गुरू की भक्ति से ही जीव भव‌सागर से उत्तीर्ण हो सकता है । 

भक्ति में केवल दो नियम है पहला अपने गुरू और ईष्ट को हर क्षण याद करो, अपने साथ महसूस करो । 
दुसरा नियम हरि गुरू को एक पल के लिए भी मत भुलो ।
:- श्री महाराज जी के प्रवचन से ।

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