भगवानश्री कृष्ण की सब कुछ अनंत है ।
*आप लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ जानते हैं, जो कुछ करते हैं, तीन- ज्ञान, बल, क्रिया यानी ज्ञान, बल, माने इच्छा क्रिया। ये तीन भगवान् में पूर्ण-पूर्ण और हमारे अन्दर क्षुद्र-क्षुद्र, थोड़ी-थोड़ी। लेकिन वहीं से कनेक्टेड हैं सदा। उन्हीं की शक्ति से ये शक्तिमान् हो रहा है जीव और उन्हीं की शक्तियों से शक्तिमती, जितनी भी शक्तियाँ हमारी वर्क कर रही हैं जितनी शक्तियाँ भगवान् में हैं उतनी हमारे अन्दर भी हैं लेकिन एक के पास पारस है, एक के पास एक लाख रुपया है। पारस तो अनन्त रुपया बनाता जायगा और बना रहेगा स्वयं और एक लाख रुपया क्या है आज, दो-एक साल में समाप्त हो जाता है। लेकिन है सब चीज हमारे पास भी क्योंकि हम सत्, चित्, आनन्द ब्रह्म के अंश हैं इसलिये सन्धिनी, संवित्, ह्लादिनी, तीनों शक्तियों का रियेक्शन हमारे साथ है। वो भी चेतन, हम भी चेतन, वो भी अनादि, हम भी अनादि, वो भी नित्य, हम भी नित्य। लिमिट का भेद है। हम लिमिटेड हैं वो अनलिमिटेड है, बस। मोटी-सी परिभाषा समझिये हमारी सब चीजें सीमित हैं, उसकी सब चीजें सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। कोई भी चीज़ भगवान् की सान्त नहीं है, सीमित नहीं है, सब अनन्त। सत्ता अनन्त, ज्ञान अनन्त, ह्लादिनी अनन्त और देखिये इन्हीं तीन शक्तियों का कमाल है कि भगवान् अपना ज्ञान जीव को देते हैं, अपना आनन्द जीव को देते हैं, अपना रस जीव को भी देते हैं यानी दो काम हैं भगवान् के- वृहति वृहयति, जो बड़ा हो और बड़ा करे। खाली बड़ा हो तो हम लोगों का कोई लाभ नहीं होगा। इसलिये प्रपन्न को, शरणागत को बड़ा करे। जो सम्बन्ध को जान ले, उस जानने वाले का सम्बन्ध भगवान् से हो जायेगा, बच नहीं सकता और फिर भगवत्कृपा से वो ज्ञान, जो भगवान् के पास है, वो संवित् शक्ति के द्वारा जीव को मिलेगा और वो प्रेमानन्द जो भगवान् के पास है वो भी जीव को मिलेगा। इसलिये रसो वै सः की व्याख्या होती है, रस्यते रसयति। रस्यते जिसका रस लिया जाये, जिसका आनन्द लिया जाये वो भगवान्। तो बेचारा भगवान् तो बेकार रहा। वो उसका रस तो हम लोगों ने ले लिया। नहीं, रसयति इति रसः, वो भी रस ले।*
*जिस भगवान् का आनन्द हम लें वो भगवान् भी आनन्द का रसिक है यानी रस्यते भी है, रसयति भी है। अच्छा, यों समझिये। एक भँवरा होता है? हाँ। और एक शहद होती है? हाँ। तो शहद क्या करती है? अरे! जो कोई पिये उसको रस मिलता है और भँवरा क्या करता है? भँवरा रस ग्रहण करता है। फूलों पर बैठ-बैठ के उसका रस लेता रहता है अनेक प्रकार के। तो श्यामसुन्दर शहद भी हैं, भौरे भी हैं, यानी परमानन्दकन्द हैं। ये तो शहद हो गये। रसो वै सः और साथ साथ रसिक भी हैं। उस प्रेमानन्द को जब वो देते हैं भक्त को, तो भक्त के भीतर से वो परिप्लुत होकर के, ओत प्रोत होकर के भगवान् को समर्पित होता है, वो आनन्द भगवान् को मिलता है। मैंने बताया है पहले आप लोगों को, भूल जाते हैं। तो इस प्रकार भगवान् रस भी हैं, रसिक भी हैं। दोनों चीजें उनके पास हैं लेकिन उसी ह्लादिनी, सन्धिनी और संवित् शक्ति के द्वारा भगवान् ये कमाल करते हैं कि स्वयं रस भी हैं और रसिक भी हैं, दूसरे को भी देते हैं और अपने बराबर कर देते हैं, जीव को। तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात् कर देते हैं। इसीलिए भक्त और भगवान् के विषय में वेदमंत्र कहता है- देखो! जैसी भक्ति भगवान् में हो सेन्ट परसेन्ट वैसी भक्ति गुरु में होनी चाहिये-*
*यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ।*
*तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः।*
(श्वेता. ६-२३)
*जैसी इष्टदेव में भक्ति हो वैसी ही भक्ति गुरु में हो।*
*ठीक, अब आप लोग समझ गये कि हमारा सम्बन्ध केवल श्रीकृष्ण से ही है। उन श्रीकृष्ण के विषय में कोई पोथी, पत्रा, पण्डित, विद्वान्, महात्मा यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्ण भी पूरी-पूरी जानकारी नहीं दे सकते। श्रीकृष्ण अपने आपको नहीं जानते, बेचारे!*
*द्युपतय एव ते न ययुरन्तमनन्ततया।*
(भाग. १०-८७-४१)
*वेदों ने स्तुति किया कि महाराज आपको कौन जानेगा ? आपको आप ही नहीं जानते क्योंकि जानने का मतलब नाप लेना और नापने का मतलब कि उसकी लिमिटेशन है लेकिन आप अनन्त हैं इसलिये नाप नहीं सकते इसलिये आप भी नहीं जानते। अनन्त वस्तु को कोई भी नहीं नाप सकता।*
*तो भगवान् के अनन्त गुण, एक-एक गुण अनन्त-अनन्त मात्रा के दीनबन्धु, पतितपावन, भक्तिवश्य- ये तीन गुण खास समझिये। दीनबन्धु, पतितपावन और भक्तिवश्य- ये तीन गुण हम लोगों ने दिये हैं भगवान् को, गोलोक में नहीं थे। हाँ, ये भी कमाल तो है हम लोगों का। तीन डिग्री दे दीं भगवान् को क्योंकि गोलोक में कोई दीन नहीं है, गोलोक में कोई पतित नहीं है। वहाँ तो इसका प्रश्न ही नहीं है कोई। ये डिग्री तो हमारे यहाँ मिली है ठाकुर जी को। उनको एहसान मानना चाहिये। मानते हैं कि नहीं मानते, ये तो जब मिलेंगे तो पूछ लेना आप लोग। अभी क्या पता, मानते ही हों। तो ये सब अनन्त गुण हमारे सम्बन्धी श्रीकृष्ण में हैं, यह समझना है। फिर उनसे सम्बन्ध को करने के लिये क्या करना है? उस सम्बन्ध पर बार-बार विचार करना है।*
*-जगद्गुरूत्तम श्री कृपालु जी महाराज के नारद भक्ति दर्शन प्रवचन-५ का अंश।*
Radhe Radhe 🙏 very nice 👍
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