ये जो हमलोगों को श्री कृपालु जी महाराज गुरू रूप में प्राप्त हुए हैं न , वो हमारे और आपके पुर्व जन्मों के किसी भी साधना के फल से नहीं मिले हैं और न हमारे पुर्व जन्मों के किसी पुण्य पुंज से मिले हैं । वो हमें मिले हैं उनकी दया से, उनकी कृपा से उनके अकारण करूण स्वभाव से । -

कुछ भाईयों तथा दीदियों के बार बार के आग्रह पर श्री महाराज जी के कृपा से तथा पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी के साथ कुछ साल पहले में मेरी संगती यानि सत्संग से, यानि ब्रजगोपिका धाम में उनके साथ व्यक्तिगत रूप से मिलने के दरम्यान मेरे द्वारा किए गए व्यक्तिरूप से प्रश्न के उपरांत उनसे प्राप्त सबसे बड़ा सूझ के आधार पर, उनकी कृपा से बोध के आधार पर लिख रहा हुं रहस्य , जो मेरे जीवन का दिशा दशा , सोंच सभी बदल दिया था :-

ये जो हमलोगों को श्री कृपालु जी महाराज गुरू रूप में प्राप्त हुए हैं न , वो हमारे और आपके पुर्व जन्मों के किसी भी साधना के फल से नहीं मिले हैं और न हमारे पुर्व जन्मों के किसी पुण्य पुंज से मिले हैं । 
वो हमें मिले हैं उनकी दया से, उनकी कृपा से उनके अकारण करूण स्वभाव से । -

अब मोहि भा भरोस हनुमंता
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता ।। ( रामायण)
हमारे पुर्व जन्मों के भगवद् प्यास तथा उत्कंठा पर उनकी अकारण कृपा हुई और वो कृपा कर दिए , और श्री महाराज जी हमें मिल गए । 

किसी भी जीव के पुण्य पुंज से, या साधना से भगवान और भगवद् तुल्य महापुरूष नहीं मिला करते कभी । पुण्य पुंज कर्म धर्म, ज्ञान आदि तो केवल माया लोक का सर्वोत्तम वस्तु तक दिला सकता है जैसे सातों स्वर्ग लोक आदि तक का सुख । इंद्र वरूण कुबेर आदि तक बना सकता है जीव को, ब्रह्म लोक तक का सुख दिला सकता है जीव को , लेकिन इनसे भगवान और असली महापुरुषों को नहीं पाया जा सकता कभी यह नोट कर लीजिए अच्छी तरह से । 

भगवान और महापुरूष कृपा साध्य है, जिसपर वो कृपा कर दे उसको सबसे पहले भगवान स्वयं महापुरूष के रूप में गुरू बन कर मिल जाते हैं । 
इसलिए किसी वास्तविक अवतारी महापुरूष का मिलना भगवान की सबसे बड़ी कृपा है । बस इतनी सी बात ह्रदय में बैठ जाए , रियलाईज हो जाए तो समझ लीजिए हम आप तत्क्षण माया से उत्तीर्ण हो जाएंगे । 
भगवान तो कृपा कर चुके हैं हम पर , वो भी सबसे बड़ी और अंतिम कृपा कर चुके हैं । गुरु रूप में स्वयं हमको मिल गए हैं । लेकिन हम अपने अशुद्ध मन के कारण हमको इस महत्वपूर्ण बिषय का बोध नहीं हुआ है अबतक । हां जानकारी है केवल । क्योंकि गुरू रूप में भगवान हमको तत्वज्ञान दे कर जानकारी दे चुके हैं कि स्वयं परमतत्व हमको गुरू रूप में प्राप्त हो चुका है, लेकिन हम रियलाईज नहीं कर रहे हैं इसका , क्योंकि हमको बोध नहीं हुआ है अबतक । 
तो जानने और मानने के बाबजूद भी बोध क्यों नहीं हुआ है हमको , रियलाईजेशन क्यों नहीं हुआ है अबतक ? 

तो इसलिए नहीं हुआ है कि हमारा मन अशुद्ध है , अशुद्धी के कारण हमारा मन अभी तक संसार से ही अटैच्ड है। और संसार से अटैचमेंट के कारण हमारा मन शुद्ध नहीं हो रहा है । अंत:करण गंदा का गंदा ही है । 
यही कारण है कि सबकुछ ( तत्वज्ञान ) जानने के बाबजूद भी हमारा मन भगवान से या भगवान के रूप में जो हमारे गुरू हैं पारस के तरह उनसे अटैच्ड नहीं हो रहा है । और पारस से बिना सत् प्रतिसत सटे लोहा सोना नहीं बन सकता कभी । केवल ज्ञान प्राप्त कर लेने से कुछ नहीं होता । 

इसलिए केवल तत्वज्ञान जानने से कुछ नहीं होगा । मन को शुद्ध करने के लिए रूपध्यान साधना , गुरू सेवा करना होगा ठीक ठीक , वो भी गुरू निर्देशित तरीके से । और साधना तथा सेवा करते करते जैसे ही मन शुद्ध होगा वैसे ही गुरू से बोधात्मक शक्ति मिलेगी जिसे दिव्य शक्ति कहते हैं और हम भगवद् प्राप्ति तत्क्षण कर लेंगे । 

हमारा मन कितना शुद्ध हुआ है यह हम स्वयं ठीक ठीक नहीं जान सकते , यह गुरू जानते हैं , वो हम सभी को पल पल रीड कर रहे हैं । 
हां उन सभी को वो रीड कर रहे हैं पल पल जो उनको गुरु मान चुके हैं और जो अनन्य है उनके प्रति । 
जो अनन्य नहीं है उनको गुरू रीड नहीं करते कभी । 

प्रत्येक मनुष्य के संकल्पों को नोट करना और फल देने का काम तो सबका करते हैं भगवान , लेकिन गुरू बन कर रीड करने का काम , हमारे साधना में सहायता करने का काम , कि गई साधना की रक्षा करने का काम , हमें आगे बढ़ाने का काम, धकेलने का काम , पल पल संभालने का काम वो केवल अपने अनन्य अनुयायियों का ही करते हैं , अन्य का नहीं करते हैं । 

हम क्यों नहीं जान सकते कि हमारा मन कितना शुद्ध हुआ है ? तो वो इसलिए कि हम अपने मन से ही तो पुछेंगे कि हम कितना शुद्ध हुए हैं तो स्वाभाविक है मन कहेगा - हम विल्कूल शुद्ध हो चुके हैं , हम सब जानते हैं और मानते भी हैं , तो हम तो शुद्ध हो चुके हैं । अरे मन अपने खिलाफ बात कैसे करेगा , निर्णय कैसे देगा भला ? 
वो तो कहेगा ही की, नहीं जी हम तो शुद्ध हो रहे हैं या हो चुके हैं । 

इसलिए हमको हमारा मन नहीं बताएगा कभी कि हमारा अंत:करण कितना शुद्ध हुआ है । ये अपने खिलाफ निर्णय कभी नहीं देगा हमको । 
यहां हमको अपने मन का इस्तेमाल नहीं करके उस बुद्धि का इस्तेमाल करना होगा जो गुरू से जोड़ा है हमने । 
तब जाकर हमारी गुरू से ज्वाइंट बुद्धि बतलाएगी कि हममें कितना दोष अभी भी है और कितना कम हुआ है । अपने मन बुद्धि का इस्तेमाल किया तो गए । 
अपनी ‌बुद्धि भी हमें भ्रमित करने का ही कार्य करती है । इसलिए हमेशा गुरू से प्राप्त ज्ञान रूपी बुद्धि से स्वयं को अटैच्ड करके स्वयं को रीड करना चाहिए प्रत्येक रात को सोने के समय कि आज हम कितना शुद्ध हुए और अशुद्धी के कारण कौन कौन सी गलती हमसे आज हुई है , फिर गुरूबल से उसको अभी से ठीक करने का प्रयास करना होगा । संकल्प करना होगा कि कल ये गलती नहीं हो । 
यही प्रयास करना साधना है , प्रैक्टिस है । बिना किए एक रत्ती भी आगे नहीं बढ़ सकते हैं हम । हमारा मन अगर दुसरे को रीड करने में लगा रहेगा तो और भी हमारा मन अशुद्ध हो जाएगा । हमें अपनी बुद्धि को गुरू के बुद्धि से जोड़ कर केवल स्वयं को रीड करने पर ही फोकस करना होगा । 

तो साधना भगवान में मन लगाने का साधन है। मन को शुद्ध करने का साधन मात्र है । 
संसार के बिषयों से मन हटा कर भगवान में लगाने के क्रिया को साधना कहते हैं । 
मन को संसार से हटा कर भगवान के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण और उनके जन ( महापुरुष ) में मन को लगाने का अभ्यास करना साधना है । 
इसलिए इसको साधन भक्ति कहते हैं । 
साधन भक्ति से मन शुद्ध होता है। क्योंकि माया से परे भगवान का नाम रूप गुण लीला धाम और उनके जन दिव्य है ,शुद्ध है । वहीं जितना भी मायिक बिषय वस्तु व्यक्ति, और जीव जन्तु आदि है ये सब अशुद्ध है , क्योंकि माया के अंडर में है । 

जब तक हमारा मन शुद्ध नहीं होगा , हमारे सामने भगवान भी आकर खड़ा हो जाए तब भी हम उनको पहचान नहीं सकते कभी और न कोई लाभ हो सकता है । भगवान तो आकर खड़े ही हो चुके हमारे सामने श्री कृपालु जी महाराज रूप में । हम लोगों में से कितना लोग उनके वास्तविक स्वरूप का बोध प्रैक्टिकली किए हैं अबतक ? 
हममें से कितने लोग भगवान के डाईरेक्ट गुरू रूप में महापुरूष अवतार के वास्तविक स्वरूप को तमाम तत्वज्ञान हासिल करने के बाद भी अभी तक बोध कर चुके हैं , दर्शन कर चुके हैं जरा स्वयं सोचिए ! 
इसलिए जब तक हमारा अंत:करण शुद्ध नहीं होगा हम श्री महाराज जी के भगवद् स्वरूप को नहीं देख सकते और न रियलाईजेशन कर सकते हैं , न उनका बोध हमें हो सकता है प्रत्यक्ष रूप से । 

अत: शुद्ध वस्तुओं का चिंतन , मनन, ध्यान करने से मन शुद्ध होता है और अशुद्ध वस्तुओं का चिंतन करने से मन अशुद्ध होता है । 
तो साधना मन को शुद्ध करने का साधन मात्र है , यह भगवान को पाने का साधन नहीं है । भगवान और उनके जन यानि महापुरूष तो कृपा साध्य है । वो किसी साधन से प्राप्त नहीं हो सकता । 
भगवान स्वयं गुरू में हमें प्राप्त हो चुके हैं । 
वो अपनी कृपा से हमें मिल भी चुके हैं । हमें अब क्या प्राप्त करना शेष है भला ? 
वो स्वयं को हमें दे चुके हैं । 
वो तो हमको अपना मान चुके हैं , वो डंके के चोट पर इसकी घोषणा भी कर चुके हैं कि-

 "तुम हमको अपना नहीं मानते , नहीं रियलाईज करते , लेकिन हम तो तुमको अपना मान चुके हैं , अपना बना चुके हैं । ' 
तो यह उनका बहुत बड़ा तथा अत्यंत गहरा संकेत है । 

तो भगवान तो हमको प्राप्त हो चुके हैं अब शेष क्या है ? तो शेष है बस हमको भी उनको अपना मानना होगा , रियलाइजेशन करना होगा , कि हम भी उनका हीं है । 
 और रियलाईजेशन के लिए बोध करना होगा । 
 बोध करने के लिए अपने अंत:करण को शुद्ध करना होगा । अंत:करण को शुद्ध करने के लिए गुरू निर्देशित साधना तथा सेवा करनी होगी । तत्पश्चात अंत:करण शुद्ध होगा । शुद्ध होते ही गुरू अपने स्वरूप शक्ति से हमारे इंद्रियों को दिव्य बना देंगे फिर हमको वास्तविक रूप से बोध हो जाएगा प्रैक्टिकली , फिर 100% रियलाईजेशन भी हो जाएगा और हम सदा के लिए आनंदमय हो जाएगे । उनकी दिव्य सेवा करने का अधिकारी बन जाएंगे । 
उनकी दिव्य सेवा मिल जाएगी हमें । 
 सदा पश्यन्ति सूर्य: 
अनंत काल के लिए हम माया से मुक्त होकर स्वयं महापुरूष बन जाएंगे , मतलव साधन सिद्ध महापुरूष बन कर उनका वास्तविक सेवक बन जाएंगे । सेवा भाव को अंगीकार कर लेंगे वास्तविक रूप से । 

अब कुछ लोग पुछ सकते हैं कि अगर भगवान कृपा साध्य है , अकारण करूण है, जीवों के किसी भी पुण्य पुंज से नहीं मिल सकते तो केवल आपलोगो पर ही कृपा करके गुरू रूप में मिल गए हमको क्यों नहीं मिले ? तमाम मनुष्य पर उनकी करूणा क्यों नहीं हुई है ?

तो उसका रहस्य यह है कि जिस जीव की रूची पिछले जन्मों में भगवान को जानने की हुई , उत्कंठा जागृत हुई, प्यास उत्पन्न हुई , उसी पर वो अकारण करूण भगवान अपनी कृपा से कृपा करके हमारे इस जन्म में गुरू बन कर प्राप्त उसे हुए और आज भी अब भी कुछ जीव अपनी रूचि और उत्कंठा , प्यास के तीव्रता के अनुसार उनको वो गुरू रूप में प्राप्त हो रहे हैं । 
जिस जीव के उत्कंठा की तीव्रता जितनी अधिक थी उसको वो सबसे पहले मिले बचपन में ही , और जिसकी कम हुई थी लेकिन हुई थी उसको वो बाद में मिले और जिसकी जितनी मात्रा में हुई उसी मात्रा के अनुसार वो उत्तरोत्तर मिले और मिलेंगे भी।

 कुछ को अब उत्कंठा हो रही है जब वो शरीर में नहीं है फिर भी उनको अपने प्यास के अनुरूप वो आज भी मिल रहे है । 
 मिलने का मतलव उनको वो गुरू मान कर उनकी बतलाई साधना शुरू कर रहे हैं वो जीव और वो कृपा कर रहे हैं आज भी उसी तरह जिस तरह पहले करते थे । 

उनकी कृपा कृपा है , कृपा कम या अधिक नहीं होती है , भगवान अपने में रूची रखने वालों में , अपनी ओर आने वालों में पक्षपात नहीं करते कभी, भेद नहीं करते कभी । 

वल्कि जीव अपने साधना के स्पीड , उनकी ओर चलने के स्पीड के, प्यास तथा व्याकूलता के मात्रा के अनुरूप उनकी कृपा के मात्रा को महसूस करता है ।

भगवान और महापुरुषों की कृपा सब पर एक समान होती है । उनकी कृपा में अंतर नहीं होता कभी ।
"उनकी कृपा सदा सबहि पर " 
वो स्वयं के पद के माध्यम से हमें बता चुके हैं हर बात । 
लेकिन हम पद तो गाते हैं संकीर्तन में किन्तु उनमें छुपे रहस्यों को, वास्तविक संकेतों को पकड़ने का प्रयास नहीं करते कभी । तो इसलिए पद संकीर्तन करने के बाबजूद भी हमको कोई लाभ नहीं हो रहा है क्योंकि हम ईंद्रियों से साधना कर रहे हैं । मन से नहीं कर रहे हैं । पद के गहरे अर्थ का चिंतन नहीं कर रहे हैं , इसलिए अर्थ समझने में असमर्थ हैं । 

तो श्री महाराज जी के कृपा से और पुज्यनियां रासेश्वरी देवी के साथ मेरी संगती ( सत्संग ) से जो कुछ मुझे बोध हुआ है व्यवहारिक तौर पर उसे मैं यहां लिख दिया है उसका कुछ भाग लोगों के आग्रह पर, शुक्रिया। श्री राधे ।

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