हम भगवान श्री कृष्ण के युगल स्वरूप के उपासक हैं , साधना का पद्धति।

पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी द्वारा रूपध्यान करते समय भाव संबंधित अति महत्वपूर्ण गाइडलाइंस:- मनुष्य में किसी-न-किसी से प्रेम करने की सामान्य प्रवृत्ति होती है। इसी प्रवृत्ति को अनन्य भाव से अपने अंशी श्रीकृष्ण में स्थापित करना ही परम प्रेम है, यही आनंद प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है। किंतु हमारे मन की प्रवृत्ति अनादि काल से सांसारिक व्यक्तियों और वस्तुओं में आनंद ढूँढने की रही है क्योंकि मन माया का बना है, अतः माया के संसार के प्रति इसका स्वाभाविक आकर्षण है। मन की इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य कर भक्तियोगरसावतार श्री कृपालु जी महाराज ने अपने 'भक्ति शतक' में कहा है-

बंधन ओर मोक्ष का, कारण मनहि बखान |
 याते कौनिउ भक्ति करु, करु मन ते हरिध्यान ||

यहाँ 'हरिध्यान' से श्री महाराज जी का तात्पर्य स्मरण भक्ति से है जिसके लिए उन्होंने मन द्वारा रूपध्यान साधना किए जाने पर बल दिया है ताकि ध्यान करते समय मन भगवान के रूप, गुण, लीला, धाम के चिंतन में लगा रहे । चिंतन में निरंतर परम शुद्ध भगवान का सान्निध्य मिलने पर अनादि काल से मन पर जमा कलुष साफ होने लगता है और हम भगवान के निकट पहुँचने लगते हैं।

श्री महाराज जी ने कभी भिलाई नगर के सत्संगियों के मध्य रूपध्यान साधना की पद्धति बतलाई थी।

 देखिए, साधना में सर्वप्रथम कुछ बातें आवश्यक हैं। पहले तो आपको यह मानकर चलना है कि मैं युगल उपासक हूँ। मैं केवल कृष्ण उपासक नहीं हूँ। युगल उपासक होने के कारण मैं दोनों की साधना करता हूँ। वे मेरे माता-पिता हैं। वे मेरे स्वामी स्वामिनी जू हैं, इस भाव को लेकर चलना है। 

आप तिलक लगाते हैं! पहले लम्बा तिलक लगाते हैं, फिर गोल बिंदी लगाते हैं। जो लम्बा तिलक लगाते हैं, वे केवल कृष्ण उपासक हैं। जो लम्बा और गोल लगाते हैं, वे युगल उपासक हैं। ऊपर का तिलक कृष्ण का, नीचे की बिंदी राधारानी की! आपके तिलक से ही लोग समझ जाएँगे कि आप युगल उपासक हैं। पर यह नहीं जान पाएँगे कि आप राधाकृष्ण के उपासक हैं या सीताराम के। लेकिन, यह समझ जाएँगे कि युगल उपासक हैं। यह सबसे महत्वपूर्ण बात है कि आपको युगल उपासना करनी है।

दूसरी बात, साधना में ऐसा कोई जरूरी नहीं है कि दोनों को सदा साथ रखना है। मान लीजिए कि आप श्रीकृष्ण माधुरी का पद गा रहे है; आपको इस समय श्रीकृष्ण का ध्यान करने की इच्छा है, आप अपने सामने श्रीकृष्ण को खड़ा कीजिए। किसी समय आपको स्वामिनी जू का ध्यान करने की इच्छा है, तो राधारानी को खड़ा कीजिए। कभी आपको युगल उपासना करने की इच्छा है, तो दोनों को खड़ा कीजिए । परन्तु हमेशा हमें यह याद रखना है कि यदि उन्हें हम सर्वस्व मानेंगे तो जब चाहें जिस भाव में आ पाएँगे। लेकिन यदि आप दास्य भाव में भक्ति करेंगे तो फिर सखा नहीं मान सकेंगे। इसलिए टॉप की साधना कीजिए। कभी इच्छा हो रही है श्रीकृष्ण को प्रियतम मानने की, तो उसी भाव से उपासना करें। और पुरुष भी साधना करते समय यह न सोचें कि वे श्रीकृष्ण को कैसे प्रियतम मानेंगे! आपका शरीर पुरुष का है, पर हर कोई कई बार पुरुष या स्त्री दोनों हो चुका है। यह तो शरीर का सिर्फ नाम है।

उपासना मन से होती है। आपका जो भाव देह बनता है, वह मुख्य है। भगवान आपके शरीर को नहीं देखते। आपके मन से जो भावना बनायी जाती है, उसी का भावदेह बनता है। भावदेह से आपने भगवान का जैसा रूपध्यान किया है, आपको उनके वैसे ही साक्षात् दर्शन होंगे। इसलिए यहाँ यह महत्वपूर्ण नहीं है कि मैं पुरुष हूँ। महत्वपूर्ण यह है कि मैं आत्मा हूँ और आत्मा स्त्रीलिंग होती है।

परमात्मा आत्मा को ग्रहण करता है और आत्मा स्त्रीलिंग होती है। इसलिए मीरा ने जीव गोस्वामी से कहा था, अब तक मैंने जाना था कि पूरे ब्रह्माण्ड में एक ही पुरुष है और बाकी सब नारियाँ हैं। वह एक ही प्रियतम है। तुम एक दूसरे पुरुष कहाँ से आ गये ? - तो अब स्पष्ट है कि हम सब आत्माएँ हैं । आत्माओं के प्रियतम परम पुरुष श्रीकृष्ण हैं। दंडकारण्य के ऋषि-मुनि आत्माएँ हैं। तभी तो वे ऋषि-मुनि होकर भी राम को देखकर प्रियतम भाव से आकृष्ट हो रहे हैं। ये ऋषि-मुनि जोगी हैं, वैरागी हैं। काम उनको छू नहीं सकता, किंतु राम को देखकर कामुक हो गए! - आश्चर्य नहीं लगता? इसलिए उनको प्रियतम भाव से प्रेम करना है । पुरुष-स्त्री सभी आत्माएँ हैं और श्रीकृष्ण सबके प्रियतम हैं। :- पुज्यनियां रासेश्वरी देवी जी ।।

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