रूपध्यान बिधि - श्री कृपालु महाप्रभु जु ।

श्री महाराज जी द्वारा बतलाया गया रूपध्यान -

जैसा मैं बता रहा हूं । रूपध्यान बनाइए । अपने आपको गोलोक ले चलिए ।जहां आप लोग बैठे हैं यह मृत्यु लोक हैं ।इसके ऊपर सात लोक हैं और इसके नीचे सात लोक हैं ।
 यह भू-लोक है । इसके ऊपर भू, भूव: मह: जन: तप; सत्य, ब्रह्म लोक है और नीचे तल ,अतल, वितल, सुतल, तलातल, रसातल, पाताल, आदि सात लोक हैं।

 इन चौदह लोकों का ये माया का ब्रह्मांड है ।यहां माया का आधिपत्य है ।इस ब्रह्मांड में तीन प्रकार के जीव रहते हैं -कुछ सात्त्विक प्रधान, कुछ राजस प्रधान, कुछ तामस प्रधान । सात्विक प्रधान जीवो को देवता कहते हैं । राजस प्रधान जीव इस मृत्युलोक के हैं , तामस प्रधान जीव राक्षस होते हैं।
 वैसे हमारे मृत्यु लोक में भी इन तीनों प्रकृतियों के मनुष्य हैं । कुछ मनुष्य सात्विक हैं , कुछ राजस हैं , कुछ तामस है , और यह भी ध्यान रखिएगा कि जो सात्विक है । मनुष्य हो अथवा देवता हो उनमें भी तामस राजस रहता है ।
किंतु वो कम मात्रा में रहता है । इसलिए हम उसको सात्विक कह देते हैं ।
इसी प्रकार जो राजस हैं उनमें भी सात्विक और तामस रहता है , किंतु कम मात्रा में रहता है, इसलिए उसको हम राजस कह देते हैं , इसी प्रकार तामस प्रधान जीव में भी सात्विक और राजस भाव रहते हैं , किंतु उसको हम तामस प्रधान बोल देते हैं ।
यह माया के तीन गुण है । अतएव जब तक भगवत् प्राप्ति न होगी तब तक यह तीनों गुण सदा साथ रहेंगे 
 इस प्रकार सात्विक ,राजस , तामस , इन तीन गुणों से युक्त माया का आधिपत्य जहां तक है वो सब ब्रह्मांड कहलाता है ।
इस ब्रह्मांड के ब्रह्या के चार मुख है । इसी प्रकार दस मुख का ब्रह्मा , सौ मुख का ब्रह्मा , हजार मुख का ब्रह्मा, लाख मुख का ब्रह्मा , करोड़ मुख का ब्रह्मा होता है।
 और जितने मुख का ब्रह्मा होता है उतना ही बड़ा उसका ब्रह्मांड होता है ।
आज की साइंस ने भी सिद्ध कर दिया है। अब कोई बात ऐसी अनहोनी नहीं लगेगी किसी को अनंत कोटि ब्रह्मांड है । और इन ब्रह्यांडों में ये ही चौरासी लाख प्रकार के जीव रहते हैं । और सब के सब ब्रह्मांड माया के अंडर में है थोड़ा-थोड़ा अंतर है ।
तो इस प्रकार एक माया का एरिया मैंने आपको बताया, अनंतकोटि ब्रह्मांडात्मक । इस माया का एरिया, यानि अनंत कोटि ब्रह्मांडों का माया का यह जो विश्व है इसके ऊपर बिरजा नदी है । 

आपको हम गोलोक ले चल रहे हैं । इसलिए रास्ता बता रहे हैं । आप लोग साधना करेंगे, तो किस प्रकार आप करें ये आपको हम बता रहे हैं साधना, इस ब्रह्मांड को छोड़कर आपको आगे जाना है । इस शरीर से, मल मूत्र के पिटारे से , अपने आप को निकाल करके आत्मा को और दिव्य देह मन से बना करके, उसको भाव देह कहते हैं ।
और आप ब्रह्मांड को छोड़कर बिरजा नदी के पास जाएंगे बिरजा नदी का जल दिव्य है । ये बिरजा नदी एक गोलाई के घेरे में है, पूरे ब्रह्मांड की गोलाई में । इसी के नीचे से माया प्रारंभ होती है । बिरजा नदी जहां से प्रारंभ होती है वहां माया नहीं जा सकती सूर्य, चंद्र कोई भी मैट्रियल पावर वहां नहीं जा सकती - 

न तत्र सूर्यो भांति न चन्द्रतारकंनेमाविधुतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।
त्वमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भाषा सर्वमिदं विभाति ।।
- ( श्वेता.6-14)

माया काल किसी का प्रवेश नहीं । उस विरजा नदी के ऊपर सिद्ध लोक है, उसके लोग में परमहंस लोग ब्रह्म में लीन रहते हैं । ज्ञानी लोग जो मुक्ति चाहते हैं, कैवल्य मुक्ति है , सायुज्य मुक्ति है, एकत्व मुक्ति । 

 इसके ऊपर परम व्योमलोक है , परव्योम लोक में महाविष्णु रहते हैं । ये सगुण साकार भगवान का लोक है, यहां पृथ्वी भी है, जल भी है , मनुष्य , पशु- पक्षी भी है, लेकिन सब दिव्य, चिन्मय, मायातीत, अलौकिक । वहां के किसी पदार्थ के एक कन को भी कोई देख ले परमहंस भी तो अपनी समाधि भूल जाय । जगदानंदी, रसगुल्लानंदी की क्या कथा ? अनंत अनिर्वचनीय , अपरिमेय , अपौरूषेय दिव्य परमानंद है । भगवत् धाम कहलाता है।

यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।। ( गीता १५-६)

तो वो परव्योम कहलाता है । उसी परव्योम के अंतर्गत तमाम लोक हैं, शिवलोक, राम लोक, तमाम जितने भी अवतार हुए हैं उन सब के लोक हैं । और सब दिव्य चिन्मय ।
 वहां के बृक्ष भी दिव्य, चिन्मय , पृथ्वी भी दिव्य चिन्मय। 

वहां की पृथ्वी की धूल का एक कण भी कोई देख ले तो वही आनंद मिलेगा जो आनंद भगवान् के देखने में मिलता है । 
अर्थात् यों समझिए कि स्वयं भगवान् ही पृथ्वी बनते हैं, स्वयं भगवान ही जल बनते हैं, स्वयं भगवान ही बृक्षादि बनते हैं । वहां सब कुछ अलौकिक, दिव्य, चिन्मय आनंदमय । 
उसके ऊपर गोलोक है सबसे ऊपर इसके ऊपर कुछ नहीं है ।
तो जो बात महा विष्णु के लोक में है लगभग वही बात गोलोक में भी है, केवल रस का वैलक्षण्य ने विशेष है। परमव्योम लोक में जो यहाविष्णु का लोक है, वहां तो लीलादि नहीं होती केवल भगवान् का रूप है, गुण है, धाम है, जन है , किंतु लीला विलास नहीं है और गोलोक में माधुर्य लीला विशेष है ।इतना विशेष अंतर है ।

तो उस गोलोक में आपको जाना है ,यानी आप अपने मन से अपनी आत्मा को बाहर निकालिए और अपना शरीर बनाइए सूक्ष्म दिव्य और ब्रह्मांड को भेद करके विरजा नदी को पार करके, सिद्ध लोक पार करके गोलोक चलो।
 और वहां राधाकृष्ण का रूपध्यान आप बना लीजिए मन से अब मैं गोलोक आ गया। अब माया मेरा कुछ नहीं कर सकती और वहां जहां माया का प्रवेश भी नहीं है-

विलज्जमानया यस्य स्थातुमीक्षापथेऽमुया ( भाग.२-५-१३)

 सामने नहीं खड़ी हो सकती भगवान के वहां क्या जाएगी बिचारी। ऐसे लोक में आप अपने आप को ले जाइये आपकी सेफ्टी हो गई । अब आप प्रपंच से अलग हो गए ऐसी फीलिंग कीजिए । फिर इसके बाद राधाकृष्ण का रूपध्यान कीजिए जिस प्रकार का रूप ध्यान आपको पसंद हो वही रूप ध्यान बना लीजिए, - ( साधना नियम पेंज २७ से लेकर ३३ तक )

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