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Showing posts from June, 2024

भगवान‌श्री कृष्ण की सब कुछ अनंत है ।

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*आप लोग जो कुछ सोचते हैं, जो कुछ जानते हैं, जो कुछ करते हैं, तीन- ज्ञान, बल, क्रिया यानी ज्ञान, बल, माने इच्छा क्रिया। ये तीन भगवान् में पूर्ण-पूर्ण और हमारे अन्दर क्षुद्र-क्षुद्र, थोड़ी-थोड़ी। लेकिन वहीं से कनेक्टेड हैं सदा। उन्हीं की शक्ति से ये शक्तिमान् हो रहा है जीव और उन्हीं की शक्तियों से शक्तिमती, जितनी भी शक्तियाँ हमारी वर्क कर रही हैं जितनी शक्तियाँ भगवान् में हैं उतनी हमारे अन्दर भी हैं लेकिन एक के पास पारस है, एक के पास एक लाख रुपया है। पारस तो अनन्त रुपया बनाता जायगा और बना रहेगा स्वयं और एक लाख रुपया क्या है आज, दो-एक साल में समाप्त हो जाता है। लेकिन है सब चीज हमारे पास भी क्योंकि हम सत्, चित्, आनन्द ब्रह्म के अंश हैं इसलिये सन्धिनी, संवित्, ह्लादिनी, तीनों शक्तियों का रियेक्शन हमारे साथ है। वो भी चेतन, हम भी चेतन, वो भी अनादि, हम भी अनादि, वो भी नित्य, हम भी नित्य। लिमिट का भेद है। हम लिमिटेड हैं वो अनलिमिटेड है, बस। मोटी-सी परिभाषा समझिये हमारी सब चीजें सीमित हैं, उसकी सब चीजें सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म। कोई भी चीज़ भगवान् की सान्त नहीं है, सीमित नहीं है, सब अनन्त। सत्ता...

धर्म का पालन किया जाता है रक्षा नहीं । धर्म का पालन करने से धर्म जीव की रक्षा करता है । जीव धर्म कि रक्षा नहीं कर सकता । इसलिए हम सनातन धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।

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धर्म का पालन किया जाता है रक्षा नहीं ।  धर्म का पालन करने से धर्म जीव की रक्षा करता है । जीव धर्म कि रक्षा नहीं कर सकता ।  इसलिए हम सनातन धर्मावलंबियों को अपने धर्म का पालन करना अनिवार्य है ।  धर्म का मतलव जो धारण करने योग्य हो ।  धर्म क: ?  धारयेति इति धर्म : ।। धारणात् धर्म इत्याहुः धर्मों धारयति प्रजाः । यः स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।  ( महाभारत ) "धर्मः ध्रियते लोकः अनेन इति धर्मः,  धरति धारयति व लोकम् इति धर्मः,." ( महाभारत) तो अधर्मी और विधर्मी से सदैव सचेत और सावधान रहना चाहिए। शास्त्रों के अनुकूल चलें, मन से तो बंदर चलता है। वेद कहता है-“धर्मं चर,” अर्थात् धर्म का पालन करो;  “धर्मेण सुखमासीत्,” अर्थात् धर्म से लौकिक सुख मिलता तथा प्रारब्ध अच्छा बनता है;  “धर्मान्न प्रमदितव्यम्”, अर्थात् धर्म में प्रमाद या असावधानी नहीं करनी चाहिये।। धर्म क्या है ? जिसे धारण किया जा सके वो धर्म है । जैसे आग का धर्म है गर्मी प्रदान करना , जलाना । जैसे बर्फ का धर्म है ठंडक प्रदान करना ।  उसी प्रकार जीव की अवस्था के अनुसार हमारे सनातन व...

निराशा‌ क्यों आती है ।

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श्री महाराज जी :- जो प्राप्त वस्तु है उसका अनादर करने से निराशा आती है। सोचो, हमको मानव देह मिला, भारत में जन्म मिला महापुरुष मिला, तत्वज्ञान मिला, उसके द्वारा दिया हुआ, तो सात अरब आदमियों में कितने आदमी हमारे बराबर है जिनको ये सब सौभाग्य प्राप्त है। कितने हजार आदमी है, कितने लाख आदमी है जिनको इतनी भगवत्कृपा मिली है जितनी हमको मिली हैं।  तो तुम्हारे दिमाग में ये आएगा कि ऐसे तो बहुत कम लोग है। बार - बार सोचो, कितनी बड़ी भगवत्कृपा मेरे ऊपर है अगर मृत्यु के एक सेकण्ड पहले भी आपको यह बोध हो गया कि कितना सौभाग्यशाली हूँ कितनी भगवत्कृपायें मेरे ऊपर हुई है।  1) देव - दुर्लभ मानव देह अनन्त जीवों में किसी - किसी भाग्यशाली को ही मिलता है, फिर मेरे जैसा सौभाग्यशाली कौन होगा जिसको ऐसा गुरु मिला जो केवल कृपा ही करता है। जब उनका अनुग्रह प्राप्त है तो निराशा की क्या बात है। धिक्कार है, मेरे जीवन को। अपनी बुद्धि को उनके श्रीचरणों में डाल दो तो निराशा हट जायेगी। और अगर हट गई और मृत्यु हो गई, तो अगले जन्म में फिर आपको आशावाद के अनुसार ही फल मिलेगा।  2) प्राप्त कृपाओं का बार - बार चिन्तन करन...

भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।

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भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी। बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी।। पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता। सतसंगति संसृति कर अंता।। पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा। मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा।। सानुकूल तेहि पर मुनि देवा। जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा ।।  भक्ति परम स्वतंत्र है , भक्ति को किसी भी आधार यानि जप तप व्रत उपवास यज्ञ आदि की कोई आवश्यकता नहीं है ।  इन सबको भक्ति के आधार की जरूरत है लेकिन भक्ति को इन सब के आधार की कोई आवश्यकता नहीं है ।  यानि जप तप व्रत पुजा यज्ञ उपवास में अगर भगवान श्री राधाकृष्ण के प्रति भक्ति का भाव नहीं है , उनका रूपध्यान नहीं है तो यह सब बेकार है , फल रहित है । लेकिन भक्ति में इन सबकी कोई जरूरत नहीं है ।  भक्ति में केवल अपने गुरू के साथ सत्संग, अनन्य होकर उनके आदेशों का पालन ,‌ उनकी शरणागति तथा उनकी निष्काम सेवा की जरूरत है ।  जप तप व्रत उपवास पूजा यज्ञ आदि कर्मकांड में बड़े बड़े कायदा कानून हैं , नियम का उल्लघंन हुआ दंड मिलेगा । लेकिन भक्ति में न कोई नियम है और न कोई कायदा कानून हैं ।  उपर से आज इस कलयुग में इनके कठीन कठीन नियमों का पालन करना किसी के लिए...

अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ?

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बहुत महत्वपूर्ण तत्वज्ञान :-  प्रश्न :- अनन्यता क्यों जरूरी है , क्यों केवल अपने गुरू का ही सुनना अनिवार्य है ?  उत्तर :- आज तक थोड़ा भी भगवद् प्रेम का आभास तक नहीं हुआ आप लोगों को , क्योंकि आप लोग अपने ईष्ट और गुरू के प्रति अनन्य नहीं रहे । मक्खी कि तरह यहां वहां सब जगह बैठते फिरे । जो आया शहर में प्रवचन देने , या टी भी आदि पर , जाकर सुन आए , ताली बजा आए ।  श्री महाराज जी का स्पष्ट आदेश है -भगवद् विषय कि बातें अपने गुरू के अलावा किसी से न सुनो और न देखो ।  सब का अपना अपना अलग अलग मार्ग है , अलग अलग तरीका है बताने का ।  ये ऐसा बोल रहे हैं जबकि महाराज तो ऐसा बोले है, आ गया मन में , बस हो गया संशय और महापुरूषों का अपमान , और अपमान से बढ़ कर दुसरा नामापराध नहीं है कोई ।  श्री महाराज जी ने यहां तक मना किया है कि खुद से गीता , रामायण , भागवद् तथा अन्य शास्त्र भी नहीं पढ़ना है ऐसा करना भी कुसंग है । पढ़ेंगे तो अपनी दो अंगुली की खोपड़ी से अपनी बुद्धि लगा कर शास्त्रों के अर्थ का अनर्थ करेंगे आप लोग ।  जिससे दिमाग में कन्फ्यूजन पैदा होगा ,संशय पैदा होगा और ...