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Showing posts from July, 2021

यह धराधाम कभी इश्वर से खाली नही रहा है। कभी पूर्णावतार , कभी अंशावतार , कभी विलाशावतार , कभी युगावतार, कभी संत और महापुरुषावतार तो कभी दासावतार आदि के रुप में हमेशा भगवान सगुन साकार रुप में इस धराधाम पर निवास हमेशा किये थे , करते है , और करते रहेगें ।

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यह धराधाम कभी इश्वर से खाली नही रहा है। कभी पूर्णावतार , कभी अंशावतार , कभी विलाशावतार , कभी युगावतार, कभी संत और महापुरुषावतार तो कभी दासावतार आदि के रुप में हमेशा भगवान सगुन साकार रुप में इस धराधाम पर निवास हमेशा किये थे , करते है , और करते रहेगें । जब भगवान, संत , महापुरुष , सारे एक हीं है , अपने लीला का संवरण करते हैं तो अपने पीछे अपने परम नीधी स्वरुप अंशो को छोड़ जाते हैं हमारे कल्याण के लिये , हमारी रक्षा के लिये ।  हमारे मार्ग दर्शन के लिये । ये वे दया वश , करुणा वश , कृपा वश करते है , हम पतित जीवो के उद्धार के लिये।  अब हमारे प्राण वल्लभ श्री 'कृपालु जी महाराज जी ' ने भी ऐसा ही किये हैं । अपनी अंशो को , तीनो दीदीयों को और पुत्रों को हमारे कल्याण के लिये एक वरदान स्वरुप हमे देकर खुद निराकार स्वरुप हो कर इस चराचर में व्याप्त हो गये हैं ।  यह अनुभव प्रमाण और शास्त्र प्रमाण है ऐसा हर युग में हुआ हैं। जिन लोगों ने भाव चक्छु , प्रेम पुर्ण नेत्रों से दीदीयों को देखा है , उनके चरण कमल पर अपना मस्तक रखा है , उनको जरुर ऐ एहसास हुआ होगा या हुआ है कि तीनो दीदीयां और भईया क...

उपवास का अर्थ

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उपवास का अर्थ सनातन धर्म का इन वेद-शास्त्रो से अनभिज्ञ मूर्ख पंडितो(अज्ञानी ब्राह्मणो) और तथाकथित ढोंगी बाबाओ/महात्माओ ने कितना बेड़ागर्क किया हैं उसकी एक झलक देखिये- उप समीपे यो वास जीवात्मपरमात्मनोः । उपवासः स विज्ञेयः न तु कायस्य शोषणम् ।। (2-39; वराहोपनिषत्) वेद कह रहा हैं कि- जीव के मन-बुद्धि का परमात्मा के निकट/समीप वास करना ना कि काया/शरीर का शोषण; यही वास्तविक अर्थ हैं उपवास का । और समाज में उपवास का अर्थ प्रचलित क्या हैं? इस दिन ये मत खाओ ! उस दिन वो मत खाओ ! एकादशी के व्रत में ये खाओ, प्रदोष के व्रत में वो खाओ, जन्माष्टमी-रामनवमी-नवरात्रि आदि सभी पर्वो में हम बस व्रतो को खाने-पीने की वस्तुओ से ही जोड़कर देखते है !!! अच्छा जी ! तो वेद की परिभाषानुसार आपका मन एकादशी या किसी भी अन्य पर्व या व्रत पर कितनी देर हरि-गुरु के पास रहा अर्थात् कितनी देर आपने भगवद्विषयक चिन्तन किया और मायिक विषयो से मन को दूर रखा?? अजी ! वो तो एक सेकण्ड के लिये भी नही हुआ बल्कि दिन में 20 बार हमने क्रोध किया सैकड़ो बार दूसरो के प्रति गलत चिन्तन किया !! तो फिर आपने कोई व्रत नही किया यहाॅ तक कि रसनेन्द्रिय...

श्री महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं - एक काम की बात सुनो मन -

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श्री महाराज जी :- भगवान जीव से कैसे आनंद प्राप्त करतें हैं - एक काम की बात सुनो मन -  जीस प्रकार जीव माया के अण्डर में है उसी प्रकार भगवान योगमाया के अण्डर में हैं । यह योगमाया उनकी प्रर्सनल पावर हैं जिसे स्वरूप शक्ति भी कहतें हैं , सीधी सीधी समझिये गधे की अकल से । तो  वो योगमाया क्या करती है ? भगवान् की सर्वज्ञता को समाप्त कर देती है । अगर भगवान् ये याद रखें कि मैं भगवान् हूंँ तो फिर वो हमारे काम का नहीं , बेकार हो गया वो ।  हाँ, जैसे संसारी स्त्री , संसारी पति के लिए व्याकुल हो रही है और पति परवाह नहीं कर रहा है तो वो स्त्री कहेगी , नमस्कार, ऐसे पति से, और कहीं व्याह कर लेंगें । तो उसी प्रकार अगर हम भगवान् से प्यार करें और भगवान् आत्माराम बने रहें, अजी गधों तुम्हारी हमको क्या आवश्यकता है ? मैं तो ब्रह्मा , शंकर की भी आवश्यकता नहीं महसूस करता । तुम कूड़ा-कबाड़ा जीवों से हमारा क्या लेना-देना।  ना, जितनी मात्रा में हम भगवान् से प्यार करेंगें उसी प्रकार प्रेम करना पड़ेगा भगवान को । करते हैं । तो कैसे करतें हैं ? वही योगमाया, जो स्वरूपशक्ति है भगवान को मोहित कर देती है ...

प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ?

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प्रश्न - धर्म , अर्थ, काम और मौक्ष को कैतव क्यों कहा गया है ? उत्तर ( श्री महाराज जी द्वारा ) - धर्म, अर्थ, काम ऐ बंधन कारक है। यानि यह पुनर्पि जननम पुनर्पि मरनम, यानी आवागमन के चक्र में बांधने वाला कारक है इसलिए इस त्रिकर्म को कैतव कहा गया है। और मौक्ष अपवर्ग है, यह तो बड़ा खतरनाक है। इसे गौरांग महाप्रभु ने पिशाचनी की संज्ञा दिए हैं। क्यूंँकि मौक्ष प्राप्त होने के बाद ज्ञानि खुद ब्रह्म स्वरूप हो जाता है। आनंदस्वरूप हो जाता है। फिर मैं और मेरा का संभावना खत्म हो जाता हैं। आनंद पा कर आनंदित होना‌ और आनंद स्वरूप बन जाना दोनों में बड़ा भारी अंतर है। अब शुभकर्म किया तो स्वर्ग मिलेगा, स्वर्ग भी माया के अधिन है। मनुष्य हीं शुभकर्म करके, ‌ यानी जीव ही कर्म धर्म करके देव लोक में इंद्र वरूण कुबेर बनतें हैं। और फिर जब उनके सारे पुण्य क्षीण हो जाते हैं स्वर्ग के भोग द्वारा तो फिर धरती पर उनको मनुष्य का शरीर भी नहीं मिलता। देवता एक भोग योनि हैं अन्य जीव की तरह, देवता कर्म नहीं कर सकते क्यूंकि शरीर नहीं है मनुष्य के तरह उनके पास। और जब उनके सारे पुण्य समाप्त हो जातें हैं तो धरती पर कीड़ा मकोड़ा का ...